गाजर घास उन्मूलन का जमीनी अभियान

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-3)

- पंकज अवधिया



शिक्षा के दौरान बहुत पढा था कि गाजर घास से एलर्जी होती है पर कभी किसी गाजर घास जनित एलर्जी के शिकार को देखा नही था। रायपुर मे एक अभियान के दौरान मैने एक रिहायशी कालोनी के निवासियो को व्याख्यान दिया और फिर मुँह, नाक, कान बाँध कर हम लोग जुट गये गाजर घास को उखाडने मे। हाथ मे कुछ ने दास्ताने पहने थे तो कुछ ने पालीथीन की झिल्लीयो को ही दास्ताने बना लिये थे। अचानक शोर हुआ। सब लोग एक बुजुर्ग व्यक्ति को घेर कर खडे हो गये। पता चला उन्हे गाजर घास से एलर्जी के कारण साँस फूल रही थी और पूरे शरीर मे चकत्ते निकल रहे थे। आनन-फानन मे डाक्टर को बुलाया गया। डाक्टर ने आते ही उन्हे डाँटा और कहा कि जब आपको पता है इससे एलर्जी है तो फिर आप यह क्यो करते है? बाद मे पता चला कि बहुत पहले से इन सज्जन को गाजर घास से एलर्जी थी और इसके लिये उन्होने चिकित्सा भी करवायी थी। पर गाजर घास को उखाडने का उनमे जुनून था। इसीलिये मेरे व्याख्यान के बाद घर वालो से नजर बचाकर वे सक्रिय हो गये। उस अभियान के बाद मैने निश्चय किया कि केवल स्वस्थ्य लोगो को ही ऐसे अभियान मे शामिल किया जाये और सम्भव हो तो एक डाक्टर भी साथ हो।


पर यह निर्णय आसान नही था। स्वस्थ लोगो की पहचान कैसे की जाये? मेरे अभियान बिना किसी आर्थिक सहायता से होते थे और जेब से ही दास्ताने वगैरह जुगाडने पडते थे। गाजर घास से एलर्जी है या नही- यह पता लगाना आसान नही है। डाक्टर इसमे समय लेते है। कई तरह के परीक्षण किये जाते है। पैसे भी लगते है। फिर यह भी जरुरी नही कि स्वस्थ्य व्यक्ति हमेशा इस एलर्जी से बचे रहे। इसके लिये समय-समय पर जाँच करवानी चाहिये। उस समय अभियान जोरो पर था। दिन मे औसतन दस स्थानो मे व्याख्यान होते थे और फिर सब मिलकर इसे उखाडते थे। अब इतने सारे लोगो का परीक्षण हो तो हो कैसे? मैने व्याख्यानो मे यह बात उठायी। बहुत से सुझाव आये कि आम लोगो से चन्दा लिया जाये। आखिर यह अभियान उन्ही के लिये था। पर पैसे माँगना मुझे जँचा नही। पैसे की माँग बहुत से लोगो को इस जागरुकता अभियान से दूर कर सकती थी। फिर पैसा झगडे की जड भी तो है। कई स्थानो पर विशेषकर अमीरो की कालोनियो मे निवासी व्याख्यान से प्रभावित तो होते थे पर गाजर घास उखाडने की मेहनत से बचते थे। वे अपने मजदूरो और नौकरो को अभियान मे भेज देते थे। भले ही उनका स्वास्थ्य अमीरो के लिये मायने न रखे पर मुझे उनकी चिंता रहती थी। एक बार सम्पन्न इस एलर्जी का इलाज करवा सकते है पर बेचारा गरीब एक बार फँसा तो जिन्दगी भर पैसे खर्चता रहेगा।


कई बार मुझ पर भी सन्देह किया जाता था। गाजर घास के नाम से संस्था है और फिर यह विश्व स्तर का वैज्ञानिक है। इसे इस अभियान के लिये पैसे मिलते होंगे। भला मुफ्त मे कोई क्यो अपना समय और पैसा बर्बाद करेगा? उनकी सोच भी गलत नही थी। आजकल सच मे ऐसी ही मानसिकता हो गयी है। कुछ मुझ पर आरोप लगाते थे कि आप पैसे खर्च करे और सारी व्यवस्था देखे। पर सौभाग्य से ऐसे बहुत कम लोग ही मिले। ज्यादातर लोगो ने इस अभियान को हाथो हाथ लिया। स्थानीय अखबार इसे प्रमुखता से छापते रहे और लोग अभियान के लिये सम्पर्क करते रहे। शहर के आस-पास मै अपने स्कूटर से चला जाता था और दूरी के लिये बस का सहारा था।


कुछ समय तक अभियान चलाने के बाद यह लगने लगा कि प्रतीकात्मक रुप से गाजर घास उखाड कर दिखाना जरुरी है पर हजारो हेक्टेयर जमीन मे फैली गाजर घास को इस विधि से तो नही समाप्त किया जा सकता। यह तो रावण के सिर की तरह लगने लगी। जितना काटो उतना फैलने लगती। अभियान के कुछ सप्ताह बाद ही फिर उसका राज हो जाता। फिर अभियान तो अभियान है। सबसे कस कर मेहनत नही करवायी जा सकती। श्रमदान अपनी इच्छा से होता है। किसी ने जड सहित उखाडी तो किसी ने अधूरा छोड फोटोग्राफर की ओर रुख करना पसन्द किया। हाँ इस अभियान से लोग यह अवश्य जान जाते थे कि गाजर घास क्या है और इससे क्या नुकसान है? बहुत से सक्षम लोग अपने घरो के आस-पास से इसे उखाडवाकर अपने कर्तव्यो की इतिश्री मान लेते थे। अब समस्या यह हुयी कि बेकार जमीन मे उग रही गाजर घास को कौन उखाडे?

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बेकार जमीन की गाजर घास : समस्या की जड



(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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