देशी वनस्पतियो से गाजर घास नियंत्रण
गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-9)
प्रकृति ने सबका दुश्मन बनाया है। जहाँ एक ओर गाजर घास कई आर्थिक महत्व की वनस्पतियो पर विपरीत प्रभाव डालती है वही बहुत सी ऐसी वनस्पतियाँ है जो गाजर घास पर विपरीत प्रभाव डालने मे सक्षम है। इन वनस्पतियो को बढावा देकर गाजर घास को फैलने से रोका जा सकता है। भारतीय वैज्ञानिको ने इस पर गहन अध्ययन किया। गाजर घास की विरोधी वनस्पतियो को खोजने के लिये वे प्रकृति की प्रयोग शाला मे गये। फिर एक लम्बी सूची तैयार की। जिन प्रयोगो ने सारी दुनिया का ध्यान खीचा वे है डाँ एम. महादेवप्पा के प्रयोग। उन्होने अपना सारा जीवन गाजर घास पर शोध के लिये समर्पित कर दिया। उनकी सूची मे कैसिया सेरेसिया नामक वनस्पति सबसे ऊपर है। उन्होने अपने प्रयोगो को जमीनी स्तर पर दिखाकर यह प्रमाणित कर दिया कि इस वनस्पति की सघन वृद्धि गाजर घास का पूरी तरह से सफाया कर सकती है। उन्होने कर्नाटक के अलावा देश के विभिन्न हिस्सो मे इसका प्रदर्शन किया। उनके प्रयोगो से प्रभावित होकर कर्नाटक सरकार ने कैसिया सेरेसिया के टनो बीज किसानो को देने आरम्भ किये। आज भी यह क्रम जारी है। इस वनस्पति के पक्ष मे यह कहा जाता है कि यह आर्थिक महत्व की वनस्पति है और जमीन की उर्वरता को बढाती है।
जबलपुर के वैज्ञानिको ने गेन्दे की पहचान की। गेन्दे की आबादी के साथ गाजर घास को अलग-अलग अनुपात मे लगाया गया। फिर गहन शोध किया गया। छत्तीसगढ मे कैसिया की एक अन्य प्रजाति कैसिया टोरा को उपयोगी माना गया। कैसिया टोरा को स्थानीय स्तर पर चरोटा के नाम से जाना जाता है। लोग चरोटा की नयी पत्तियो को शाक की तरह उपयोग करते है। इसके बीजो का औद्योगिक महत्व है। प्रतिवर्ष टनो चरोटा बीजो की आपूर्ति देशी-विदेशी बाजारो मे की जाती है। गाजर घास के लिये इसे बेकार जमीन मे लगाने से आम लोगो को इससे आय भी होगी- ऐसा विशेषज्ञो का मानना है।
वनस्पतियो के माध्यम से गाजर घास के नियंत्रण की अपनी सीमाए है। एक वनस्पति एक स्थान पर तो सफल दिखती है पर दूसरे स्थान पर सफलता का प्रतिशत कम हो जाता है। इसीलिये कहा जाता है स्थानीय स्तर पर अनुसन्धान करके क्षेत्र विशेष के लिये स्थानीय वनस्पतियो की पहचान की जाये न कि दूसरे स्थान पर किये गये प्रयोगो को आँखे बन्द करके मान लिया जाये। दूसरी सीमा है इन वनस्पतियो का साल के कुछ महिनो मे ही सक्रिय रहना जबकि गाजर घास साल भर मजे से उगती रहती है। गाजर घास विदेशी पौधा है और इसे अकेले भारत लाया गया। अमेरिका मे इसे नष्ट करने वाले ढेरो कीडे और रोगकारक है पर भारत मे इसका कोई प्रकृतिजन्य दुश्मन नही है जबकि इसके विरुद्ध उपयोग की जाने वाली देशी वनस्पतियो को न केवल गाजर घास से लडना है बल्कि उनके अपने दुश्मन भी है। इसलिये लम्बे समय तक वे इससे मुकाबला नही कर पाती है।
बहुत से वैज्ञानिक यह प्रश्न खडा करते है कि जिन वनस्पतियो का हम सहारा ले रहे है कही वे ही बाद मे सरदर्द न बन जाये। यह भी एक तरह से एक समस्या को हटाने दूसरी समस्या का सहारा लेने वाली बात हुयी। फिर प्रकृति मे एक तरह की वनस्पति को बढावा देना प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। ये तर्क भी सही जान पडते है। यह लगता है कि इन वनस्पतियो को किसानो और आम लोगो तक पहुँचाने मे हमने जल्दी दिखायी है। इस पर सभी पहलुओ पर विस्तार से अनुसन्धान करके ही आगे बढना ठीक रहेगा। आखिर हमारा एक गलत कदम आगामी कई पीढीयो के लिये मुसीबत बन सकता है।
एलिलोपैथी पर काम कर रहे बहुत से वैज्ञानिक दूसरे रुप मे इन वनस्पतियो के प्रयोग की बात करते है। उनका कहना है कि इन उपयोगी वनस्पतियो मे ऐसे रसायनो की पहचान की जाये जो कि गाजर घास के विपरीत काम करते है। फिर इन रसायनो का प्रयोग सीधे ही गाजर घास के नियंत्रण मे हो। इस पर अनुसन्धान हुये है पर बडी सफलता हाथ नही लगी है। आमतौर पर गाजर घास के बीजो पर इन रसायनो को डाल कर प्रयोगशाला मे निष्कर्ष निकाल लिये जाते है। फिर इन्ही निष्कर्षो को खेत मे भी आजमाया जाता है। खेत मे गाजर घास के बीजो के अलावा परिणाम को प्रभावित करने वाले ढेरो अन्य कारक भी रहते है। नतीजतन प्रयोग सफल नही हो पाते है।
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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