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सफेद मूसली के व्यवसायिक उत्पादन में मददगार देशी वनस्पतियाँ. भाग-३

सफेद मूसली के व्यवसायिक उत्पादन में मददगार देशी वनस्पतियाँ . भाग - ३ सफेद मूसली के उत्पादन और गुणवत्ता को बढाने के लिए विशेष वनस्पतियाँ अहम भूमिका निभा सकती हैं| दुनिया भर के किसानो को १०० से अधिक प्रकार की औषधीय और सगन्ध फसलों के विभिन्न पहलुओं पर तकनीकी परामर्श दे रहे जैव-विविधता विशेषज्ञ पंकज अवधिया ने पीढीयों से जंगल में उग रही सफ़ेद मूसली को औषधीय मिश्रणों के रूप में प्रयोग कर रहे पारम्परिक चिकित्सकों के साथ मिलकर ट्रेडीशनल एलिलोपैथिक नालेज पर आधारित कई प्रयोग किये और फिर हर्बल खेती कर रहे किसानो के साथ खेतों पर प्रयोगों को दोहराया| लम्बे प्रयोगों के बाद विशेष वनस्पतियों की पहचान की गयी है| इस पर आधारित फिल्म का कुछ अंश आप इस कड़ी पर देख सकते हैं| अधिक जानकारी के लिए आप पंकज अवधिया के वेबसाईट पर जाएँ| http://www.youtube.com/watch?v=f5Cbbz5Kr50 Updated Information and Links on March 05, 2012 New Links :  http://www.scribd.com/doc/ 83154451/Remedial-Measures- for-Toxicity-of-Traditional- Herbal-Medicines-Recent- Topics-in-Pankaj-Oudhia%E2%80% 9
ब्लूमिया: कहने को खरपतवार, जाने तो गुण अपार - पंकज अवधिया प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में भारतीय हानिकारक गुटखों के कारण मुख रोगों के शिकार होते हैं और कैंसर जैसे रोगों के कारण उनकी मौत हो जाती है| गुटखे के चंगुल में एक बार फंस जाने के बाद उससे निकल पाना बेहद मुश्किल हो जाता है| राज्य के पारम्परिक चिकित्सकों के पास न केवल गुटखे से होने वाले रोगों की चिकित्सा से सम्बन्धित जानकारी है बल्कि वे ऐसी वनस्पतियों के विषय में जानकारी रखते हैं जिनका गुटखे के साथ प्रयोग काफी हद तक गुटखे के दुष्प्रभाव से बचा सकता है| मैंने अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणों के माध्यम से १८० से अधिक प्रकार की ऐसे वनस्पतियों की पहचान की है| इन वनस्पतियों में कुकरौन्दा जिसे राज्य में कुकुरमुत्ता के नाम से भी जाना जाता है, एक है| यह वनस्पति को अभी बेकार जमीन में उगते देखा जा सकता है| इसका वैज्ञानिक नाम ब्लूमिया लेसेरा है| पारम्परिक चिकित्सक इसकी जड की सहायता से मुख रोगों की चिकित्सा पीढीयों से करते आ रहे हैं| आधुनिक विज्ञान भी इस पारम्परिक उपयोग का लोहा मानने लगा है| इसी जड को गुटखे में मिलाकर

टकला, चने की इल्ली और जैविक खेती कर रहे किसान

पारम्परिक कृषि ज्ञान और किसानो के बीच जीवन के स्वर्णिम पल-१ - पंकज अवधिया टकला, चने की इल्ली और जैविक खेती कर रहे किसान "और टकला है कि नहीं?" यह मेरा अंतिम प्रश्न था| "टकला? वह तो मुझे नहीं पता पर आप अपने मोबाइल की सहायता से उसकी तस्वीर भेजेंगे तो मैं पहचान लूंगा| या फिर आपको मैं एक ई-मेल पता देता हूँ उसमे आप तस्वीरें भेज दे| कल मेरा लड़का पड़ोस के बड़े गाँव से वह तस्वीर ले आयेगा|" उस ओर से आवाज आयी| यह आवाज एक किसान की थी| युवा किसान आधुनिक संचार माध्यमों से जुड़ रहे हैं और कृषि में उनका लाभ उठा रहे हैं यह तो हम सब देख ही रहे हैं पर इस बार बुजुर्ग किसान में युवाओं जैसा उत्साह देखकर मैं अभिभूत हो गया| इन किसान ने बड़े क्षेत्र में चने की फसल लगाई थी| हर साल की तरह इस बार भी चने की इल्ली का आक्रमण हुआ था| पिछले दो सालों से उन्होंने जैविक खेती का रुख किया था| पहले-पहल वे नीम, धतूरे और दूसरी जहरीली वनस्पतियों का प्रयोग करते रहे पर जब उन्होंने राजस्थान से छपने वाले कृषि अमृत मे