बिना आर्थिक मदद के दौडता गाजर घास पर एक संगठन
गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-21)
सारा देश जानता है कि गैर-सरकारी संगठन बनाकर काम करना घाटे का सौदा नही है। गाजर घास के लिये मैने वार एगेंस्ट पार्थेनियम (वाप) का गठन तो पहले ही कर लिया था। इसी के बैनर के तले गाजर घास के तमाम कार्यक्रम होते थे। कभी इसके पंजीयन की जरुरत नही पडी क्योकि जेब से ही इसे चलाते रहे। जब इस अभियान की प्रसिद्धि विदेशो तक पहुँची तो बहुत से संगठन सामने आ गये आर्थिक मदद के लिये। मुझे सलाह दी गयी कि मै एक सोसायटी बनाऊँ और उसका पंजीयन करवाऊँ। इसी के बाद पैसा मिल सकेगा। आनन-फानन मे पंजीयन की प्रक्रिया आरम्भ की। पता चला कि ‘वार’ शब्द होने के कारण ‘वार एगेंस्ट पार्थेनियम’ नाम से पंजीयन नही हो सकता। नया नाम सोचना होगा। नया नाम सोचा सोपाम (सोसायटी फार पार्थेनियम मैनेजमेंट)। यह नाम तो मंजूर हो गया पर उद्देश्यो मे आपत्ति लगती रही। इस बीच किसी ने सलाह दी कि जेब गर्म की जाये तो बिना आपत्ति के सब कुछ हो जायेगा। ऐसा ही हुआ।
कुछ समय बाद आर्थिक अनुदानो के लिये चक्कर लगने लगे। पता चला कि इसमे भी एक पूरा चैनल है। सीधा रास्ता नही है। आपको पैसा मिलेगा इसलिये जो इस चैनल मे है उन्हे भी पैसा देना होगा। और भी कई मजबूरियो का पता चला। जैसे आला अफसरो को खुश रखना होगा वगैरह-वगैरह। जल्दी ही मन कहने लगा कि यह ठीक रास्ता नही है। जब तक जीवन-मरण का प्रश्न न हो क्यो भ्रष्ट बना जाये। इस सोच ने बचा लिया इस दलदल मे फँसने से। मैने निश्चय किया कि जितना बन पडेग़ा अपने दम पर इसे चलाऊँगा। ऊपर वाले की दया है जो आज भी यह संगठन मेरे अपने पैसे से चल रहा है। मैने ऊपर लिखा है कि माननीय मेनका गाँधी ने एक बार मेरे कार्यो पर इंडिया टीवी पर एक कार्यक्रम पेश किया था। उन्होने पूछा था कि नमक का पैसा कहाँ से आता है? और इसमे अब तक कितने खर्च हो गये है? मैने उन्हे बताया अभी तक दो लाख खर्च हुये है और मै इस कार्य के लिये किसी से पैसे नही लेता तो उन्हे एक बारगी विस्वास नही हुआ। आज गाजर घास पर वेबसाइट और सोपाम के कार्यो को देखकर सब यही मानते है कि जरुर विदेश से तगडा पैसा आ रहा होगा। लाख समझाने पर भी लोगो को यकीन नही आता। आज का हमारा समाज ऐसा हो गया है। बिना लाभ के कम ही लोग काम करते है और उन्हे आम बोलचाल की भाषा मे सिरफिरा कहा जाता है।
कुछ वर्षो पहले मै भारत सरकार के बायोटेक्नोलाजी विभाग के आमंत्रण पर गाजर घास के उपयोगो पर शोध-पत्र पढने दिल्ली गया। वहाँ इसे सराहा गया और मुझसे कहा गया कि मै सोपाम के माध्यम से प्रस्ताव भेजूँ ताकि इस पर आर्थिक मदद की मंजूरी हो सके। इसी तरह दुनिया भर के खरपतवार विशेषज्ञो के संगठन ग्लोबल इंवेसिव स्पीसीज इनफारमेशन नेटवर्क़ (जी.आई.एस.आई.एन) ने भी कई बार प्रस्ताव भेजने के लिये अनुरोध किया। मै इसका एकमात्र ऐसा सदस्य हूँ जो बिना आर्थिक सहायता से गाजर घास पर काम कर रहा है। इस संगठन के पास अपार धन है। मुझे गाजर घास के अध्ययन के दौरे के लिये बहुतो ने छोटे हेलीकाप्टर खरीदने मे सहायता का प्रस्ताव भी दिया।
मुझे लगता है कि पैसा ही जीवन मे सब कुछ नही है। फिर नि:स्वार्थ रुप से काम करना कठिन है पर इससे जो खुशी मिलती है उसकी अनुभूति ही अलग है।
आज दुनिया भर से हर माह सैकडो पत्र और ई-मेल आते है कि हम गाजर घास से कैसे बचे? यदि कोई चाहे तो इससे बहुत अधिक धानार्जन किया जा सकता है। प्रभावित लोग फीस देने की बात तो करते ही है। पर मैने गाजर घास से आय न प्राप्त करने का मन बनाया है। आज तक तो इस पर कायम हूँ।
आज सोपाम के सैकडो सदस्य है और अपने-अपने स्तर पर जागरुकता फैला रहे है। उनसे कोई फीस नही ली जाती। सब अपनी क्षमता के अनुसार समय-समय पर अभियानो मे भाग लेते रहते है। बहुत से ऐसे सदस्य है जो अपने बायोडेटा मे इसका नाम लिखने तक ही सहयोग करते है। सोपाम मे सबका स्वागत है।
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
शेष आलेखो के लिये इस कडी को चटकाए गाजर घास के साथ मेरे दो दशक
Comments