गाजर घास का रासायनिक नियंत्रण : समाधान या एक नयी समस्या?
गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-6)
गाजर घास के रासायनिक नियंत्रण पर दुनिया भर मे बहुत शोध हुये है। यही कारण है कि आज हमारे वैज्ञानिको के पास रसायनो की लम्बी सूची है। इनमे से ज्यादातर रसायन प्रभावी ढंग से गाजर घास के पौधो को नष्ट कर देते है। अलग-अलग फसलो के लिये अलग-अलग रसायन उपलब्ध है। गाजर घास के साथ यदि दूसरे खरपतवारो को नष्ट करना है तो विशेष रसायन है। आज भी नये रसायनो का विकास हो रहा है और बडी संख्या मे विशेषज्ञ नवीन अनुसन्धान मे लगे है। मै कभी भी रसायनो का समर्थक नही रहा। जैसा मैने पहले लिखा है गाजर घास हजारो हैक्टेयर जमीन मे फैली है। इतने बडे क्षेत्र मे रसायनो का उपयोग मतलब एक नयी मुसीबत को आमंत्रण। एक समस्या को हटाने दूसरी समस्या को विकल्प के रुप मे सामने लाना भला कहाँ की समझदारी है? वैसे भी रसायनिक खेती के दुष्परिणाम हम देख ही रहे है। न अन्न सात्विक रहा और न ही जल की शुद्धता बरकरार रह पा रही है। ऐसे मे गाजर घास के लिये बडी मात्रा मे धरती के सीने पर रसायनो का अम्बार सही नही जान पडता है। यही कारण है कि मै अपने अभियानो मे रसायनो के पक्ष मे कम बोलता हूँ। रसायन पर्यावरण के लिये अभिशाप होने के अलावा महंगे भी है। बडे किसान इनका प्रयोग कर लेते है पर छोटे किसान इसमे सफल न्ही हो पाते है। फिर बेकार जमीन मे गाजर घास को नष्ट करने मे आने वाला व्यय भला कौन उठायेगा?
अनुसन्धानकर्ताओ के बीच गाजर घास के रासायनिक नियंत्रण के पक्षधर लोगो का एक गुट है। इसमे काफी रसूखदार लोग है। यही कारण है कि गाजर घास के रासायनिक नियंत्रण पर शोध को ही अधिक प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इस प्रोत्साहन के पीछे वे रसायन बनाने वाली कम्पनियाँ भी है जिन्हे गाजर घास से जबरदस्त मुनाफा होता है। वे ऐसे शोधो को प्रायोजित करती है। समय-समय पर आयोजित होने वाले सम्मेलनो मे भी इन कम्पनियो की सक्रियता देखी जा सकती है। कभी-कभी लगता है कि हमारे विशेषज्ञ निज स्वार्थ त्याग कर कम्पनियो की बजाय किसानो को सम्मेलनो मे सक्रिय कर पाते तो इस देश का भला हो जाता है सही मायने मे।
देश मे बहुत से ऐसे विशेषज्ञ भी है जो कि अन्य प्रकृति मित्र उपायो की सहायता से गाजर घास का प्रबन्धन करना चाहते है पर सम्मेलनो मे उनकी आवाज रसायनो के पक्षधरो द्वारा दबा दी जाती है। हाल ही मे एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन मे जब मैने गाजर घास की सम्भावित उपयोगिता पर अपने विचार रखे तो एक जाने-माने रसायन समर्थक वैज्ञानिक मुझे सीधी चुनौती देते हुये बोले कि गाजर घास के उपयोग सुझाकर आप लोगो के मन से इसका डर खत्म नही करे। सभी लोगो को डराये। वे आम लोगो मे भय उत्पन्न करना चाहते थे ताकि भयादोहन कर रसायन बेचे जा सके। उस समय तो अन्य वैज्ञानिको ने उन्हे चुप करा दिया पर बाहर निकल कर वे लगातार मुझ पर दबाव बनाते रहे।
कुछ वर्षो पहले मुझे नागपुर बुलाया गया। एक कंपनी का दावा था कि उसने गाजर घास के नियंत्रण के लिये एक नया रसायन ईजाद किया है। वे रसायन का परिचय देने को तैयार नही थे। उन्होने क्षेत्रीय अनुसन्धान संस्थान की रपट दिखायी जिसमे उनके उत्पाद की अनुशंसा की गयी थी। उन लोगो ने मेरे सामने गाजर घास पर इस नये रसायन को डाला। कुछ समय मे इसका असर दिखने लगा। अपने अनुभव के आधार पर मैने कहा कि इसमे कुछ भी नया नही है। यह तो पैराक्वाट नामक रसायन है। उन्होने कहा नही इसमे वनस्पतियाँ है। मैने डब्बे को सूंघा तो मेरा शक और बढ गया। बाद मे उनमे से एक असंतुष्ट ने बताया कि बाजार मे मिलने वाले रसायन मे नीम मिलाकर इसे हर्बल का नाम दे दिया गया है। उसने यह भी दावा किया कि विदर्भ मे इसे किसानो के बीच बेचा जा रहा है बहुत अधिक कीमत पर। बाद मे छत्तीसगढ मे भी मैने इसके विषय मे सुना। पता चला कि सम्बन्धित अधिकारियो की झोली भरकर वे बेधडक इसे बेच रहे है। किसान और आम लोग इसका छिडकाव कर रहे है और सस्ते मे उपलब्ध रसायन हर्बल के नाम पर ऊँचे दामो पर बिक रहा है। गाजर घास पर आयोजित द्वीतीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन मे मैने इन्हे आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिको के आस-पास मंडराते देखा इस आस मे कि शायद उस देश मे सप्लाई का बडा आर्डर मिल जाये। पर जल्दी ही उन्हे समझ आ गया कि भारत ही तरह आस्ट्रेलिया मे उनकी दाल नही गलने वाली।
स्कूली बच्चो से लेकर छोटी-मोटी कम्पनियाँ लगातार विभिन्न संचार माध्यमो से ये दावा करती रहती है कि उन्होने गाजर घास को नष्ट करने का रसायन विकसित किया है। वे इनाम और सम्मान की प्रतीक्षा मे रहते है। पर यह डगर इतनी आसान नही है। मुझे अपने प्राध्यापक की कही बात याद आती है कि किसी भी पौधे पर एसिड डाल देने से वह मर जाता है पर इसका मतलब यह नही है कि किसानो को एसिड डालने की राय दे दी जाये। यह देखना निहायत जरुरी है कि यह कितना प्रभावी है, इसमे कितनी लागत आयेगी, क्या यह धरती के लिये सुरक्षित होगा? आदि-आदि। आम तौर पर मै ऐसे दावे करने वालो को सबसे पहले धन्यवाद देता हूँ कि कम से कम उन्होने गाजर घास की समस्या के लिये कुछ पहल तो की। फिर उन्हे राय देता हूँ कि वे राष्ट्रीय खरपतवार अनुसन्धान संस्थान जबलपुर से सम्पर्क करे और नियमानुसार अपने उत्पाद का परीक्षण कराये। आम तौर पर अविष्कारक को यह डर रहता है कि कही ऐसे संस्थानो से उनके उत्पाद की चोरी न हो जाये। आम जनता के बीच ऐसी बहुत सी बाते फैली होती है और ज्यादातर पूर्व मे घटित हुयी घटनाओ के आधार पर ही कही जाती है। इसके लिये इन संस्थानो ने कई पारदर्शी नियम बनाये है जिनसे निश्चिंत होकर उत्पादो का परीक्षण करवाया जा सकता है। यदि उत्पाद कारगर है तो वे अपनी रपट देंगे जिसके आधार पर आप उसे बाजार मे प्रस्तुत कर सकते है। यहाँ यह भी बताना जरुरी है कि कई बार शिकायत आती है कि रपट मे छेडछाड की जाती है। निज अविष्कारक की जगह बडी कम्पनियो को अधिक महत्व दिया जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस परीक्षण के पैसे लगेंगे और हर अविष्कारक के लिये यह सम्भव नही हो पाता है। ऐसे जटिलताए उन्हे निरुत्साहित कर देती है और उनके उत्पाद अखबारो तक ही सीमित होकर रह जाते है। इन जटिलताओ को दूर करने की आवश्यकता है।
मै इस लेख भिलाई के युवा अविष्कारक श्री अमरीक सिंग की चर्चा करना चाहूंगा। उन्होने आग की सहायता से सस्ते मे गाजर घास नियंत्रण का उपाय खोजा। फिर इस अविष्कार के दम पर उन्होने नगर निगम मे गाजर घास उन्मूलन का ठेका लिया। चूँकि यह उनकी अपनी तकनीक थी इसलिये उन्होने पैसे भी बचा लिये और गाजर घास पर नियंत्रण भी पा लिया। मुझे जब इस अविष्कार की खबर लगी तो उनसे सम्पर्क किया। मैने अहमदाबाद स्थित एक जाने-माने संस्थान के विषय मे उन्हे बताया और आवेदन करने को कहा। यह संस्थान नव उद्यमियो को प्रोत्साहित करता है। इस अविष्कार के अलावा दूसरे अविष्कार भी उन्होने प्रविष्टी के रुप मे उन्हे भेजे। काफी दिनो बाद उनसे इसकी वीडियो रिकार्डिंग माँगी गयी। फिर अचानक ही कह दिया गया कि वे इस आवेदन के योग्य नही है। मैने पता किया तो उनका जवाब था कि चूँकि अमरीक सिंग पढे-लिखे है इसलिये हम उनकी मदद नही कर सकते। संस्थान अशिक्षित लोगो को प्रोत्साहित करता है। अमरीक ने कोई इंजीनियरिंग की शिक्षा नही ली है। उन्होने कामर्स की पढायी की है और इस शिक्षा का उनके अविष्कार से कुछ लेना देना नही है। वे बडे निराश हुये और साथ ही मै भी। मैने बहुत से लेख उनके कार्यो पर लिखे पर अभी तक कुछ ठोस मदद नही कर पाया। आज भी वे अपने अविष्कारो की मदद से आजीविका चला रहे है। उनके इस हुनर की तारीफ करने वाले बहुत कम है। आज समय भले ही उनके साथ न हो पर आने वाला कल उनका होगा-ऐसा मेरा विश्वास है।
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Updated Information and Links on March 05, 2012
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