गाजर घास का समंवित प्रबन्धन नही नियंत्रण जरुरी
गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-10)
आपने पढा कि गाजर घास नियंत्रण की सभी प्रचलित विधियो की अपनी-अपनी सीमाए है। सबके अपने गुण-दोष है। सभी विधियो के अच्छे गुणो को लेकर वैज्ञानिको ने समन्वित गाजर घास प्रबन्धन आरम्भ किया है। साधारण भाषा मे समझे तो ये विधिय़ाँ अलग-अलग औजार की तरह है जिन्हे अकेले या अन्य विधियो के साथ आवश्यकत्तानुसार अलग-अलग परिस्थितियो मे उपयोग किया जा सकता है। इस समन्वित गाजर घास प्रबन्धन पर मैने ढेरो शोध-पत्र पढे है। आज भी ज्यादातर सम्बन्धित सम्मेलनो मे वरिष्ठ विशेषज्ञ इस पर केन्द्रित अपने शोध-पत्र पढते ही है। हाँ हर बार शीर्षक जरुर बदल जाता है। पर यह कटु सत्य है कि जिस तरह अलग-अलग विधियाँ गाजर घास को नियंत्रित करने मे असफल रही है वैसे ही समन्वित गाजर घास प्रबन्धन की भी स्थिति है। अभी तक विशेषज्ञो ने इसे अपनाकर किसी बडे क्षेत्र को गाजर घास मुक्त नही किया है। हाल ही मै जबलपुर गया था जहाँ इस पर गहन अध्ययन हो रहे है। अनुसन्धान केन्द्र के आस-पास ही बडी मात्रा मे गाजर घास का प्रकोप है। यह तो दिया तले अन्धेरे वाली बात हुयी। राष्ट्रीय खरपतवार अनुसन्धान संस्थान के ‘लोगो’ (Logo) मे गाजर घास उपस्थित है। हमारे एक वैज्ञानिक मित्र इस पर टिप्पणी करते हुये कहते है कि “लोगो” मे इसकी उपस्थिति यह बता रही है कि यह कभी खत्म नही होने वाली। जिस दिन यह यहाँ से हट गयी उस दिन देश से भी हट जायेगी। भले ही वे इसे मजाक मे कहते हो पर इसके गहरे मायने है। आज भी बहुत से लोग हमारे बीच है जो नही चाहते कि गाजर घास खत्म हो और इससे होने वाली कमायी बन्द हो। वे चाहते है कि गाजर घास का खौफ बना रहे और इस नाम पर पैसे मिलते रहे। अन्यथा आप ही बताइये इतने बडे पैमाने पर इस पर इतने शोध हो रहे है, इतना पैसा खर्च किया जा रहा है पर आज भी हमारे पास एक भी ऐसा शहर आदर्श के रुप मे नही है जो गाजर घास मुक्त हो। इसके बचाव मे कई तर्क पस्तुत किये जा सकते है पर ऐसा ही चलता रहा तो आगे भी दशको तक कृषि अनुसन्धान के नाम पर आम जनता की मेहनत की कमायी को ऐसे ही बरबाद किया जाता रहेगा।
आम तौर पर ‘समन्वित गाजर घास प्रबन्धन’ की बात कही जाती है पर मै इसे ‘समन्वित गाजर घास नियंत्रण’ कहना पसन्द करता हूँ। इसका उद्देश्य सही मायने मे नियंत्रण ही होना चाहिये। यदि थोडी भी गाजर घास बची रह गयी तो उसे सम्स्या के रुप मे फिर से उठ खडे होने मे जरा भी देर नही लगेगी। प्रबन्धन के तहत गाजर घास को उस स्तर तक नष्ट किये जाने की बात होती है जिस स्तर पर वह नुकसान न पहुँचाये। नियंत्रण और उन्मूलन का अर्थ इसका समूल नाश है। नियंत्रण या उन्मूलन से बहुत से लोगो की पेट पर लात पडेगी इसलिये प्रबन्धन की बात की गयी है। ताकि समस्या बनी रहे और आय होती रहे। खैर यह बात भी सही है कि शब्दो के अधिक मायने नही है क्योकि ये अकादमिक स्तर पर ही रहते है। जमीनी स्तर पर कुछ नही होता है।
आज जब देश भर मे गाजर घास से प्रतिवर्ष करोडो की हानि हो रही है तब गाजर घास नियंत्रण के लिये एक दशक मनाने की जगह साल मे एक सप्ताह इसके लिये निश्चित कर दिया गया है। इस सप्ताह व्याख्यान होते है और फिर साल भर गाजर घास से पीठ कर बैठ जाते है। ऐसी नीतियाँ देश के लिये अभिशाप बनती जा रही है। बहुत बार मन मे यह विचार आता है कि क्यो न गाजर घास के समूल नाश के लिये शोधकर्ताओ को ठेका दे दिया जाये। यह ठेका समय सीमा मे हो और फिर सफलता मिलने पर उन्हे अलग से नियम बनाकर पुरुस्कारो से नवाजा जाये। इससे देश की कृषि की समस्याओ को सुलझाने शोधकर्ताओ मे स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा होगी और अकादमिक दावे करने वाले अलग से चिन्हित किये जा सकेंगे।
आज मै अपने लेखो के माध्यम से जो खुलकर लिख पाता हूँ उसके जवाब मे देश भर से हजारो पत्र आते है। हमारे देश मे बहुत से वैज्ञानिक है जो आगे आकर व्यवस्था की स्वस्थ्य आलोचना करना चाहते है पर मजबूरीवश कुछ नही बोल पाते है। उन्हे अपनी नौकरी का भय रह्ता है। वरिष्ठो द्वारा सताये जाने के भय से वे जीवन भर गलत नीतियो का समर्थन करते रहते है। इससे अंतोगत्वा देश को ही क्षति पहुँचती है। कृषि की योजना बनाने वालो की जवाबदेही भी तय होनी चाहिये। आखिर इन्ही की गलत योजनाओ के कारण तो आज हमारे देश मे खाद्यान्न संकट है। हमे अन्न के लिये विदेशो पर आश्रित होना पड रहा है। अन्नदाता आत्महत्या कर रहे है। स्वतंत्र रुप से काम करने के कारण और अपने शोध कार्यो के लिये दूसरो पर आश्रित नही होने के कारण आज मै खरी-खरी बाते कह पा रहा हूँ। मुझे असल संतोष तब ही मिलेगा जब योजनाकारो के कान मे जूँ रेंगना शुरु होगी और वे नीन्द से जागेंगे।
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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