गाजर घास से खाद: उपयोग की दिशा मे सशक्त कदम
गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-12)
आम तौर पर खेतो और मेडो पर उग रहे खरपतवारो को किसान उखाड देते है और फिर उन्हे खाद बनाने के लिये गढ्ढो मे डाल दिया जाता है। जब देश मे गाजर घास ने फैलना शुरु किया तो अन्य खरपतवारो की तरह किसानो ने इसे भी सडाना शुरु किया। इस पर वैज्ञानिक अनुसन्धान भी आरम्भ हुये। दक्षिण से एक रपट आयी कि गाजर घास का इस तरह प्रयोग सुरक्षित नही है क्योकि इसके घातक रसायन सडने की प्रक्रिया से अप्रभावित रहते है। यह भी कहा गया कि गाजर घास से बनी खाद फसल के लिये प्रयोग नही की जानी चाहिये विशेषकर खाद्यान्न फसलो के लिये। बाद मे वैज्ञानिको ने उन्नत विधियाँ विकसित की जिससे गाजर घास पूरी तरह सडने लगी। गाजर घास से अकेले और अन्य वनस्पतियो मुख्यतया खरपतवारो के साथ अलग-अलग अनुपात मे मिलाकर खाद बनाने की विधियो पर देश भर मे प्रयोग किये गये। शोध उपलब्धियो को विभिन्न मंचो से किसानो के बीच प्रस्तुत किया गया। गाजर घास पर आयोजित दूसरे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन मे बहुत से वैज्ञानिको ने अपने शोध परिणामो के साथ शिरकत की। उन्होने बडे उत्साह से अपनी बात रखी और यह भी कहा कि उनके प्रयोगो को अनुमोदित किया जाये ताकि किसानो को इससे छुटकारा और लाभ दोनो मिल सके। पर गाजर घास के रासायनिक नियंत्रण के पक्षधार लोगो ने उनके इस उत्साह को ठंडा कर दिया। बाद मे वे मुझसे इस विषय मे उनका साथ देने की बात कहते रहे पर मै भी इस हकीकत से वाकिफ था कि रसायन लाबी के सामने किसी की नही चलने वाली।
जब मै अपने व्याख्यानो के दौरान खाद वाले विषय पर आता हूँ तो किसान इसमे बडी रुचि लेते है। मै उनसे अपने विचार व्यक्त करने का अनुरोध करता हूँ ताकि इन विचारो को शोधकर्ताओ के पास पहुँचा सकूँ। गाजर घास से खाद बनाने का विरोध करने वाले यह कहते है कि खाद बनाने के लिये इसे उखाडना होगा। गाजर घास को उखाडना मतलब इससे प्रभावित होने के खुले खतरे। वे यह भी कहते है कि वैसे ही गाँव मे कृषि मजदूर कम हो रहे है। ऐसे मे गाजर घास को उखाडने का खर्च ही इतना अधिक हो जायेगा कि खाद महंग़ी लगने लगेगी। तीसरा तर्क होता है इस खाद की उपयोगिता के सम्बन्ध मे। आज देश भर मे रासायनिक खेती होती है। जैविक आदानो का प्रयोग कम होता है। ऐसे मे कितने किसान गाजर घास से बनी जैविक खाद का उपयोग करेंगे? खुले मन से इन तर्को को समझे तो ये सही लगते है। पर इन समस्याओ के समाधान भी है। कृषि अनुसन्धान मे यांत्रिकी विभाग का अहम योगदान है। उनकी सहायता से ऐसे यन्त्र बनाये जा सकते है जो कि बेकार जमीन से गाजर घास उखाडकर एक स्थान पर इस प्रकार एकत्र कर दे कि किसी भी प्रकार से वे मनुष्य़ॉ के सम्पर्क मे न आये। फिर इन्हे विशेष तौर पर बनाये गये गढ्ढो मे डाल दे सडाने के लिये। इससे मानव श्रम की बचत होगी और साथ मे एलर्जी का खतरा भी नही रहेगा। इसी तरह खेतो से गाजर घास को उखाडने के लिये भी सस्ते पर प्रभावी यंत्र बनाये जा सकते है। रही बात रासायनिक खाद के बढते प्रचलन की तो सार्वजनिक बाग-बगीचो से लेकर निजी वाटिका मे यदि उपलब्धता और जागरुकता हो तो आम लोग जैविक खाद का ही प्रयोग करते है। योजनाकार चाहे तो बेरोजगार युवको का दल बनाया जा सकता है जो बेकार जमीन से यंत्रो की सहायता से गाजर घास एकत्रित करे और फिर उससे खाद बनाये। फिर इस खाद को बेचकर लाभ अर्जन करे। यदि सही ढंग से इसके विषय मे प्रचार प्रसार किया जायेगा तो निश्चित ही आम लोग सामने आयेंगे इसे खरीदने। गाँवो से प्रतिदिन पलायन कर रहे युवा इस तरह के कार्यो को अपनाकर न केवल जीविकोपार्जन कर सकते है बल्कि गाँवो को इस अभिशाप से मुक्ति भी दिलवा सकते है।
एक बात और। गाजर घास के पौधो को खाद बनाने के लिये पुष्पन से पहले ही एकत्र करना होता है। बीज युक्त पौधे यदि उपयोग किये जाते है तो न केवल सडाने मे दिक्कत पेश आती है बल्कि खाद मे बीज भी पहुँच जाते है। इस तरह से जरा सी लापरवाही से खाद के माध्यम से गाजर घास फैलने लगती है। यदि बडे पैमाने पर खाद बनाने की योजना बनायी जाती है तो इस पर विशेष ध्यान देना होगा।
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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