सिनेमा घरो से लेकर पत्रिकाओ तक गाजर घास

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-18)

- पंकज अवधिया


सिनेमा घरो मे इंटरवेल के समय कई प्रकार की स्लाइड दिखायी जाती है। किसी ने सुझाव दिया कि गाजर घास की स्लाइड भी दिखायी जाये। आनन-फानन मे कई स्लाइड बनवायी गयी और रायपुर शहर के सिनेमा घरो से सम्पर्क किया। सबने विज्ञापन के दाम माँगे। दाम ऊँचे थे इसलिये छोटे शहरो के सिनेमा घरो का रुख किया। धमतरी मे बात जमी और प्रशांत टाकीज़ के नाहटा जी ने बडप्पन दिखाया। वे लम्बे समय तक इसे दिखाते रहे बिना शुल्क लिये। इंटरवेल के समय लोग बाहर चले जाते है और बहुत कम लोग ही इसे देख पाते है-ऐसा मन मे था। पर जब इस स्लाइड को देखकर ढेरो पत्र आने लगे तो इसका प्रभाव समझ मे आया।

पर्चे मे लिखी जानकारी को संक्षिप्त मानते हुये जब मैने गाजर घास पर एक पुस्तक लिखी हिन्दी मे तो यह उम्मीद थी कि यह हाथो-हाथ बिक जायेगी। धन की कमी से यह आकर्षक नही बन पायी पर इसमे जानकारी विस्तार से थी। देश भर के अखबारो मे इसकी समीक्षा छपी और कुछ लोगो ने इसे मंगाया भी। पर मैने यह पाया कि नि:शुल्क जानकारी के लिये सब तैयार है पर इसके लिये पैसे खर्चने को कम लोग राजी है। परिणामस्वरुप आज भी सैकडो पुस्तके वैसी की वैसी पडी है। विभिन्न प्रतियोगिताओ मे पुरुस्कार स्वरुप मै इसे भेट कर देता हूँ। गाजर घास अभियान के दौरान लोगो ने सलाह दी कि आप एक स्टाल लगाकर इसे बेचे। मैने ऐसा बहुत से धार्मिक आयोजनो विशेषकर टीवी वाले बाबाओ की सभाओ के बाहर देखा है। पता नही क्यो यह मुझे नही जँचता। मै अपने व्याख्यान मे बता देता हूँ इस पुस्तक के बारे मे। जिसे लेना होता है वह सम्पर्क कर लेता है। चन्द रुपयो की इस पुस्तक मे छूट माँगने वालो की भी कमी नही है। पुस्तक प्रकाशन और उसे बेचना भारतीय लेखको के लिये सदा ही सिरदर्द रहा है। कैसे उनका शोषण होता है- हम सब जानते है। यदि इस बेडी को तोड दे तो भारत अपने लेखन और साहित्य के बल पर ही विश्व फतह कर सकता है।

दीवारो पर गाजर घास के विषय मे जानकारी लिखवाना भी उपयोगी लगा। एक विज्ञापन एजेंसी की मदद ली और रायपुर शहर मे दीवारो पर जानकारी लिखवा दी गयी। मुझे यह बताया गया कि यह अघोषित नियम है कि पन्द्रह दिनो तक इसे नही मिटाया जायेगा। फिर कोई दूसरा इस पर अपना विज्ञापन लगा देगा। सो कुछ दिनो की चाँदनी रही पर आम लोगो के फोन आते रहे। इससे लगा कि यह भी प्रभावी कदम है। इस बीच गुरुजनो ने राय दी कि लोगो के मन मे गाजर घास नाम बस जाना चाहिये फिर वे अपने आप इसके विषय मे जानकारी खोज निकालेंगे। मैने एक नया उपाय अपनाया।

मैने निश्चय किया कि हर एक दिन की आड पर गाजर घास के विभिन्न पहलुओ पर एक हिन्दी लेख लिखूंगा। एक ही पौधे पर इतना लिखना और वो भी विविधता के साथ- असम्भव लगा पर शीघ्र ही मै इसमे दक्ष हो गया। धीरे-धीरे रोज एक लेख लिखने लगा। कभी-कभी दो-तीन लेख एक दिन मे हो जाते थे। अब समस्या हुयी इनके प्रकाशन की। इतने सारे लेख देखकर कृषि पत्रिकाए खुश हुयी पर उनके पास तो पहले ही से लेखो का अम्बार था। उत्तर भारत की एक साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादक ने तो लिख दिया कि आप हमे आगे दस वर्षो तक लेख न भेजे। मतलब उनके पास इतने सारे लेख पहले ही थे मेरे। फिर एक ही विषय पर लगातार लेख छापने के लिये प्रकाशक तैयार नही थे। बहुत सी फीचर्स एजेंसियो ने रुचि दिखायी और इनके पैसे नही देने की शर्त पर इसे देश भर मे प्रकाशित करवाया। लगातार लिखने का असर अच्छा खासा हुआ। एक व्याख्यान के अंत मे एक सज्जन पास आकर बोले कि आपको देखता हूँ तो गाजर घास की याद आ जाती है और गाजर घास को देखता हूँ तो आपकी।

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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