आखिर कब होगी किसानोपयोगी शोध की शुरूआत?
आखिर कब होगी किसानोपयोगी शोध की शुरूआत?
-पंकज अवधिया
पिछले दिनो जब मैने इंटरनेट पर बथुआ पर एक अतिथि लेख लिखा तो बहुत सारे सन्देश आये। चूँकि ज्यादतर शहरो मे ही इंटरनेट का उपयोग करने वाले है अत: प्रश्न पूछने वाले कुछ लोग ही बथुआ से अंजान थे। ज्यादातर ने बताया कि सुबह-सुबह ही यह मंडियो मे बिकने आता है और हाथो-हाथ बिक जाता है। किसी ने इलाहाबाद मे 10 रूपये मे 3 गाँठ मिलती है लिखा तो हरियाणा से इतने रूपये मे केवल एक ही गाँठ मिलने की बात कही गई। सन्देशो से यह भी पता चला कि पराठो, भाजी और भजिये के अलावा इससे तैयार रायता भी बहुत पसन्द किया जाता है। इन सन्देशो से प्रेरित होकर जब मै मंडी गया और विक्रेताओ से बात की तो पता चला कि वे इसे आस-पास के किसानो से ख्ररीद लेते है। कुछ ने तो यह भी कहा कि हम इसकी खेती करते है बडे पैमाने पर। वापस आकर बथुआ की देशी और विदेशी बाजार मे वार्षिक माँग के आँकडो का अध्ययन किया तो पता चला कि वर्ष दर वर्ष इसकी माँग बढ रही है। क्यो बढ रही है? क्योकि न केवल भारत बल्कि बहुत से दूसरे देशो मे इस पर नित नये अनुसन्धान हो रहे है। अमेरिका मे तो बकायदा दुनिया भर से इसके विभिन्न प्रकारो का एकत्रण कर औषधीय गुणो का अध्ययन किया जा रहा है। यदि आप किसान है तो अब तक इस लेख को पढते-पढते दसो प्रश्न मन मे कुलबुला रहे होंगे। हाँ, आपने सही अनुमान लगाया मै उसी बथुआ की बात कह रहा हूँ जो हमारे खेतो मे अपने आप सर्दी के मौसम मे उग जाया करता है। और जिसे हमारे शोध संस्थानो ने खतरनाक खरपतवार घोषित कर रखा है।
कल ही मै भारतीय वैज्ञानिको द्वारा इस तथाकथित खरपतवार पर किये गये अध्ययनो की सूची तैयार कर रहा था। मैने पाया कि ज्यादातर प्रयोग इसके रासायनिक नियंत्रण पर हुये है और जब मैने इन प्रयोगो पर खर्च किये गये पैसो का आँकलन करना शुरू किया तो करोड तक पहुँचने के बाद मै रूक गया। बडी कोफ्त हुयी। जहाँ एक ओर बथुआ के लिये मारामारी है। लोग इसे मनमाने दाम पर खरीद रहे है और फिर भी इसकी आपूर्ति नही हो पा रही है वही हमारे शोध संस्थान प्रकृति के इस उपहार को नष्ट करने के उपाय खोजने मे पानी की तरह पैसा बहा रहे है। पीढीयो से किसान इसे अपने खेत मे उगता देख रहे है। वे इसे हाथ से उखाडकर एकत्र कर लेते है और फिर कुछ भाग अपने परिवार के लिये रख लेते है और शेष खरीददार को दे देते है। शहर के पास वाले किसान यह लाभ पा रहे है। दूर गाँव के लोग केवल घर के उपयोग तक ही सीमित है। मुझे लगता है कि यदि शोध संस्थानो ने किसानो के लिये बाजार को गाँव तक पहुँचाने के लिये एक प्रतिशत भी खर्च किया होता तो आज तस्वीर कुछ दूसरी ही होती। रसायनो पर प्रयोग कर उन्होने भला तो किया पर किसानो की जगह रसायन बनाने वाली कम्पनियो का और यदि मै गलत नही हूँ तो इन शोध संस्थानो की स्थापना किसानो के हित के लिये की गई है।
यूँ तो बथुआ के सभी पौध भागो का प्रयोग बतौर औषधी होता है पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके बीजो से प्राप्त तेल जो कि बाजार मे चिनोपोडियम तेल के नाम से बिकता है की अच्छी माँग है। इससे एलोपैथी समेत सभी चिकित्सा पद्ध्तियो मे नाना प्रकार से प्रयोग किया जाता है। आज प्रदूषण के इस युग मे जब हम बहुत कम समय के अंतराल मे बीमार पड रहे है और आधुनिक दवाओ के सेवन के लिये मजबूर हो रहे है ऐसी विकट परिस्थितियो मे बथुआ जैसी वनस्पतियो का किसी भी रूप मे मौसमी प्रयोग शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाकर रोगो से बचा सकता है। जब विदेशियो ने इस बात को जाना तो वहाँ इसका प्रयोग बढ गया। दुनिया के जिन भागो मे यह नही उगता है वहाँ इसे सुखा कर भेजा जाता है। यह हमारे लिये सौभाग्य और गर्व की बात है कि भारत मे इसके औषधीय उपयोग से सम्बन्धित जितना ज्ञान है उतना दुनिया मे कही भी नही। पर यह विडम्बना ही है कि भारत मे ही इस उपयोगी वनस्पति को नष्ट करने के उपायो पर सबसे ज्यादा प्रयोग हुये है। प्राचीन चिकित्सकीय ग्रंथ यह बताते है कि खेतो मे स्वत: उगने वाला बथुआ ही सही मायनो मे औषधीय गुणो मे धनी होता है और खेती करने से इसके गुणो मे कमी आ जाती है। यदि भारतीय खेतो मे अपने आप उगने वाले इस पौधे को एकत्रकर इससे विभिन्न खाद्य उत्पाद और नाना प्रकार की औषधीयाँ भारत मे ही तैयार की जाये और फिर दुनिया भर मे इसकी आपूर्ति की जाये तो पहला सीधा फायदा किसानो को होगा। इसे खेतो से उखडने के लिये आवश्यक मजदूरो की मजदूरी किसान दे पायेंगे। उनकी फसल को इससे मुक्ति मिलेगी और वे इसे प्राकृतिक उपहार से धनार्जन कर पायेंगे। इसे नष्ट करने रसायनो का प्रयोग नही करना होगा जिससे गाँव का वातावरण प्रदूषित होने से बचेगा। यह तो केवल एक पौधे की बात हुयी। औसतन प्रत्येक गाँव मे 85 से 100 प्रकार के ऐसे पौधे उगते है जिन्हे बाजारो मे बकायदा खरीदा जाता है। फिर गाँव को आत्मनिर्भर बनाने का बीडा उठाने मे हमारे शोध संस्थान क्यो नही रूचि दिखा रहे है?
इस लेख को समाप्त करने से पहले मै पारम्परिक चिकित्सा मे बथुआ के कुछ विशिष्ट प्रयोगो के विषय मे बताना चाहूंगा। देश के मध्य भाग के पारम्परिक चिकित्सक आम लोगो को अपने हाथो से बथुआ लगाने और उसकी सेवा करने कहते है। जब पौधे बडे हो जाते है तो रोज सुबह नंगे पाँव उसपर जमी ओस पर चलने की सलाह देते है। ऐसा आपने दूब के साथ किया होगा आँखो की ज्योति बढाने के लिये। बथुआ पर जमी ओस पर चलना न केवल कैंसर से बचाता है बल्कि उसकी चिकित्सा मे भी सहायक उपचार के रूप मे कारगर है। जोडो के दर्द से प्रभावित रोगियो को तो बथुआ के पौधो पर सर्दी की रात को सफेद चादर बिछा देने की सलाह दी जाती है। सुबह ओस और पौधे के प्राकृतिक रसायन युक्त चादर को नीम की छाँव मे सुखा लिया जाता है। फिर रोज बिस्तर पर इसे बिछाकर सोने की सलाह दी जाती है।
ऐसी विशिष्ट वनस्पतियो और इनसे सम्बन्धित दिव्य ज्ञान के होते हुये भी यदि शोध संस्थान और उसमे कार्य्ररत विशेषज्ञ संसाधनो की कमी का रोना रोकर, देश और किसान हित का छोडकर वेतनवृद्धि और निज हित की बाट जोहते रहे तो भारतीय कृषि को विनाश की गर्त मे जाने से शायद ही कोई रोक पायेगा।
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Updated Information and Links on March 17, 2012
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