आखिर कब बन्द होगा गाजर घास उन्मूलन के नाम पर आडम्बर
आखिर कब बन्द होगा गाजर घास उन्मूलन के नाम पर आडम्बर
- पंकज अवधिया
राष्ट्रीय गाजर घास जन-जागरण सप्ताह के कुछ दिनो पूर्व जब मै सतपुडा और मैकल की पहाडियो पर वनौषधियो की खोज मे भटक रहा था तब मैने वनो मे इस विदेशी खरपतवार की बढते साम्राज्य़ को देखा। हर ओर गाजर घास थी। इसके निर्बाध फैलाव ने न केवल देशी वनस्पतियो को घेर रखा था बल्कि बन्दर और हिरण जैसे वन्य जीव इसकी सघन आबादी के बीच से गुजरने को मजबूर दिखे। जब हम अपने आस-पास उग रही गाजर घास को सब कुछ जानकर भी अनदेखा कर देते है तो भला जंगल मे कौन इसे नष्ट करने का बीडा उठायेगा? क़वर्धा के पास सडक सुधार मे लगे कुछ लोग दिखे। उन्होने काम मे सुविधा के लिये आस-पास के कुछ खरपतवार उखाड लिये थे पर इनमे गाजर घास नही थी। पूछने पर पता चला कि वे इसे उखाडने से होने वाले नुकसान को देख चुके है।अत: दूर ही रहते है। उन्हे यह जानकारी अनुभव (बुरा अनुभव कहे तो ज्यादा अच्छा होगा) से प्राप्त हुयी थी। उन्होने किसी जागरण सप्ताह से जानकारी नही प्राप्त की थी। इतना सब लिखने का मतलब यही है कि सशक्त जागरण अभियान के अलावा अब समय आ गया है कि बडे पैमाने पर भिड कर कोने-कोने से इस खरपतवार का समूल नाश किया जाये। जो लोग सप्ताह भर जागरण अभियान चलाकर अपनी पीठ थपथपा रहे है उन्हे यह समझ लेना चाहिये कि गाजर घास के फैलाव को देखते हुये पूरा एक दशक मनाना जरूरी है। कहाँ सात दिनो का आडम्बर और कहाँ दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से बढती गाजर घास।
देश के पुस्तकालय गाजर घास सम्बन्धी जानकारियो से भरे पडे है। इन शोधो पर लाखो खर्च किये जा चुके है। यदि इनमे से आधा पैसा भी सीधे इसे नष्ट करने मे लगाया जाता तो देश के एक बडे हिस्से को गाजर घास से मुक्ति मिल जाती। लोगो को रोजगार मिलता वो अलग। यह विडम्बना ही है कि ज्यादातर शोध अकादमिक महत्व के है। उनका जमीनी स्तर पर कोई उपयोग नही है। मै अपने लेखो के माध्यम से लगातार यह प्रश्न उठाता रहा हूँ कि ऐसे शोध आखिर किस काम के है? इसमे देश का पैसा लगा है। पर इससे बेपरवाह शोध संस्थान निज उन्नति मे लगे हुये है। देश के मध्य भाग की ही बात करे जहाँ इस विशेष सप्ताह को जोर-शोर से मनाया गया। भाषण दिये गये, पोस्टर बाँटे गये और चिंता जताई गई पर उसके बाद सब वाह-वाही लूटने मे जुट गये। इस भाग के लोग अभी भी वैसे ही इस खरपतवार से जूझ रहे है। क्यो नही करोडो के बजट वाले ऐसे संस्थान देश के कम से कम एक शहर को गाजर घास मुक्त बनाते ताकि पूरा देश उंनसे प्रेरणा ले सके।
साहित्यकार सदा ही से गाजर घास और भ्रष्टाचार की तुलना करते रहे है। इसमे कोई शक नही है कि दोनो एक दूसरे की तरह फैल रहे है पर अब गाजर घास के नाम पर जो बडे पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है वह चिंतनीय और निन्दनीय दोनो है। इस खरपतवार के नाम पर अनुदान तो मिल रहे है पर उस पर भी भ्रष्टाचार का साया है। यह तो अच्छा हुआ कि हमने जब सोपाम (सोसायटी फाँर पार्थेनियम मैनेजमेंट) नामक संस्था आरम्भ की तो सबसे पहला नियम यह बनाया कि कभी किसी से अनुदान नही लेंगे और जब तक हो सके अपने पैसे से ही इसे चलायेंगे। हम अब तक इसी पर कायम है पर सोपाम के बारे मे पढकर देश भर से जो हजारो पत्र आते है उनमे से ज्यादातर अनुदान की बात पूछते है। सही भी है बिना पैसे कौन समाज सेवा करता है आजकल। पर छोटे शहरो और ग्रामीण स्तर पर बहुत से उत्साही लोग है जिन्हे थोडी सी आर्थिक सहायता भी मिल जाये तो वे अपने आस-पास से इसका समूल नाश कर दे। पर इनकी सुध किसी को नही है। ये बडे शहरो मे जाकर अनुदान के लिये प्रयास नही कर पाते है। गाजर घास नियंत्रण के देशी तरीको के बारे मे समाचार लगातार देश के विभिन्न कोनो मे छपते रहते है। पर हमारे शोध संस्थानो को तो विदेशी कम्पनियो के रसायनो के परीक्षण से फुरसत नही है। यदि देशी उपायो और देशी प्रतिभाओ को प्रोत्साहन दिया जाये तो मुझे लगता है हम इससे प्रभावी ढंग से निपट सकेंगे।
एक दशक पूर्व जब गाजर घास के विषय मे जागरूकता अभियान आरम्भ हुआ था तो दिखावे के लिये स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस के अवसर पर कुछ पौधो को उखाडकर अखबारो मे तस्वीर छपवा ली जाते थी। हम लोगो को भिलाई नगर से ऐसे आयोजनो की सूचना मिलती थी। बाद मे ठेकेदार तलवारनुमा औजार से बीज युक्त पौधो को काट देते थे। बीज नीचे गिर जाते थे और इस तरह उन्हे साल दर साल ठेका मिलता रहता था। आज भी अलग-अलग स्तर और तरीके से यह गोरखधन्धा जारी है। गाजर घास से दो तरह के लोग जुडे है। एक तो वे जो चाहते है कि यह कभी नष्ट न हो ताकि शोध और जागरण अभियान के नाम पर उनकी दुकान चलती रहे। और दूसरे वो जो गाजर घास मुक्त भारत देखना चाहते है। दुर्भाग्यवश पहले प्रकार के लोग तेजी से बढ रहे है, बिल्कुल गाजर घास की तरह।
लेख समाप्त करने के पूर्व देश की कुछ अनुभवी किसानो की आशंकाए सामने रखना चाहूँगा। इसमे कोई शक नही कि गाजर घास अपने आप बडी तेजी से फैलती है पर बहुत से भागो मे इसका बहुत तेज फैलाव यह शक पैदा करता है कि कन्ही किसी साजिश के तहत इसे फैलाया तो नही जा रहा है। पर इससे किसे फायदा है? उन कम्पनियो को जो रसायनो का भंडार लिये उन्हे भारत मे खपाने आतुर है। कृषि सम्मेलनो मे विशेषज्ञो से इनकी नजदीकी साफ तौर पर देखी जा सकती है। दूसरे एलर्जी की दवाओ का भारत मे बढता कारोबार है। अगर किसानो का शक सही है तो यह देशद्रोह से कम नही है। आप भी अपने आस-पास नजर रखे तभी सच सामने आ पायेगा।
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधियो से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे है।)
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