आखिर रंग दिखाना शुरू कर ही दिया जैट्रोफा (रतनजोत) ने
आखिर रंग दिखाना शुरू कर ही दिया जैट्रोफा (रतनजोत) ने
- पंकज अवधिया
बर्मा मे हो रहे जन-प्रदर्शनो के विषय मे हम सब जानते है। पिछले दिनो जब विश्व के प्रतिष्ठित अखबारो ने यह समाचार छापा कि इस आक्रोश के पीछे जैट्रोफा की असफलता भी है तो इस विषय मे विस्तार से जानने का मन हुआ। खोज-बीन से पता चला कि डीजल की माँग बढते देखकर बर्मा के सैनिक शासको ने बडे पैमाने पर जैट्रोफा लगाने का फरमान जारी किया। योजना थी कि बायोडीजल न केवल देश मे उपयोग किया जायेगा बल्कि विदेशो मे इसे बेचकर आय अर्जित की जायेगी। सम्भवत: उन्हे भी लुभावने सब्जबाग दिखाये गये होंगे। जब फसल तैयार हुयी तो विकसित अधो-संरचना न होने के कारण बायोडीजल निकालना मुश्किल हो गया। कुछ मात्रा मे बायोडीजल निकाला गया तो बर्मा के डीजल इंजन खराब होने लगे। अत: इस पर भी रोक लग गई। इस बायोडीजल के लिये कोई विदेशी खरीददार नही मिला। चूँकि सभी तरह की जमीन मे भारत की ही तरह इसे लगाया गया था इसलिये अन्न उत्पादन पर सीधा असर पडा। बेकार जमीन मे जैट्रोफा लग जाने के कारण पशु चारा कम हो गया। थक-हार कर सैनिक शासन को बाहर से अधिक कीमत पर डीजल मंगाना पडा। डीजल के दाम बढे तो लोग सडक पर आ गये। यह पूरी जानकारी रोंगटे खडी करने वाली है क्योकि ऐसा ही प्रयोग भारत मे भी चल रहा है बहुत बडे पैमाने पर।
एक ओर जहाँ जैट्रोफा का समर्थन करने वाले लगातार सम्मेलनो और नये लोगो को फाँसने मे लगे है वही भारतीय धरती पर इस विदेशी पौधे को फैलते देखकर प्रकृति प्रेमी देशी पौधो की चिंता मे घुल रहे है। इस वर्ष देश के मध्य भाग मे जमकर बरसात हुई है। यह बरसात जैट्रोफा के लिये कयामत साबित हो रही है। कम से कम 10 प्रकार के कीटो और रोगो का आक्रमण इस पर देखा जा रहा है। इनमे से दो तरह के कीट तो पौधो को काफी हद तक नष्ट करने का माद्दा रखते है। ये बीज उत्पादन पर सीधा असर डालते है। कई सरकारे रोपणियो मे उपलब्ध क़ीटनाशको का प्रयोग किया जा रहा है। पर समस्या बढती ही जा रही है। छत्तीसगढ मे विषाणु जनित रोग नाक मे दम किये है। इतने सारे कीट और रोग उन दावो की हवा निकाल रहे है जिनमे जैट्रोफा को क़ीटो और रोगो से मुक्त बताया जा रहा था। सबसे बुरी हालत तो उन किसानो की है जिन्होने अपनी परम्परागत फसल के स्थान पर इसे लगा लिया है। क़ीटनाशको का प्रयोग दिन-ब-दिन खेती की कीमत बढा रहा है। जैट्रोफा समर्थक तो कब से पौधे बेचकर रफूचक्कर हो चुके। उन्हे भला क्या चिंता किसानो और उनके दर्द की।
जैट्रोफा के प्रचार के आरम्भिक दिनो मे ही झाँसी के वैज्ञानिको ने शोध-पत्र प्रकाशित कर यह जता दिया था कि कीटो को अनदेखा नही किया जा सकता। अन्य विशेषज्ञो ने भी आशंका व्यक्त की है कि जैट्रोफा पर आक्रमण करने वाले बहुत से कीट परम्परागत फसलो के क़ीट है। बडी संख्या मे आस-पास जैट्रोफा की उपस्थिति इन क़ीटो की शरणस्थली बन सकती है और किसान अपनी मुख्य फसल मे कितना भी उपचार करे क़ीट तो शरणस्थली से आते ही रहेंगे। ठीक पडोसी देश के आतंकवादी शिविरो जैसे। ऐसी स्थिति निश्चित ही भारतीय किसानो के लिये अभिशाप बन जायेगी।
जैट्रोफा की आबादी का देशी वनस्पतियो पर क्या प्रभाव पड रहा है यह जानने के लिये मै पिछले कुछ वर्षो से देश के विभिन्न भागो मे अध्ययन और सर्वेक्षण के लिये जाता रहा हूँ। जमीनी स्तर पर काम करने से मुझे 550 प्रकार की ऐसी वनस्पतियो के विषय मे पता चला है जिनपर जैट्रोफा का नकारात्मक प्रभाव सीधा पडता है। इनमे से ज्यादातर वनस्पतियाँ पारम्परिक चिकित्सा तंत्रो मे आमतौर पर प्रयोग होती है। यह बुरी खबर है कि जैट्रोफा का नकारात्मक प्रभाव गाजरघास पर नही पडता है। दोनो को मजे से साथ मे उगते देखा जा सकता है। बहुत से पौधो पर जैट्रोफा का सकारात्मक प्रभाव भी देखा गया है। चारो ओर जैट्रोफा के बढते साम्राज्य को देखकर पारम्परिक चिकित्सको के मन मे आशंकाओ के बादल उमड रहे है।
तो जैट्रोफा ने अपने असली रंग दिखाने आरम्भ कर दिये है। पर इनसे बेपरवाह जैट्रोफा समर्थक अपने स्वप्न लोक मे खोये हुये है। जितने पौधे मरेंगे उतना ही अच्छा है उनके लिये क्योकि उतने ही नये पौधो की खरीद होगी और भ्रष्टाचार का एक और मौका उन्हे मिलेगा। कई राज्यो मे जैट्रोफा के बीजो को एकत्र कर लाने की अपीले अखबारो मे छप रही है। ये सरकारी विभाग है जो अपने आकाओ को खुश करना चाहते है। आम लोग बीजो को एकत्र करने इस पौधे के पास जायेंगे और हर बार की तरह इसके घातक रसायनो के सम्पर्क मे आयेंगे। इससे कैसर होने की बात तो सारा जगत जानता है। सरकारी विभाग भी जानते है। तभी तो उन्होने यह काम दूसरो को सौपा है।
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधियो से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे है।)
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Comments
पता नहीM इसे विदेशी पौधा क्योM कहा जाता है? मै तो अपने क्षेत्र मे इसे चालीसों वर्षों से देख रहा हूँ. कभी सोचा भी न था कि यह इतना उपयोगी है.
विश्व के वैज्ञानिक दस्तावेज देखे तब आपको पता चलेगा यह कैसे विदेशी पौधा है। गूगल पर भी ये दस्तावेज है। रही बात नीति की तो जब नीति ही नही बनी है तो फिर इस वृहद रोपण के क्या मायने?