"राईस एलिलोपैथी" और औषधीय धान लाइचा
"राईस एलिलोपैथी" और औषधीय धान लाइचा
भले ही छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहकर हमारे योजनाकार इतराते हों पर यह कडवा सत्य है कि राज्य में औषधीय धान के विभिन्न प्रकारों की कटोरा भर भी सुध कभी नही ली गयी| इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि अब लाइचा जैसे औषधीय धान ढूँढे नही मिलते हैं|
कुछ वर्षों पहले इंटरनेशनल राईस रिसर्च इंस्टीटयूट, फिलीपींस में डा.मारिया ओलोफ्सडाटर ने ऐसी धान की प्रजाति की खोज के लिए करोड़ो रुपये पानी की तरह बहाए जिसमे अपने आस-पास उगने वाले खरपतवारों को नष्ट करने की क्षमता हो| अर्थात सीधे शब्दों में यदि कहा जाय तो एक बार धान के विशेष प्रकार को खेत में लगाने के बाद खरपतवार नियंत्रण की जरूरत ही नही| धान के पौधों से निकलने वाला प्राकृतिक रसायन जिसे वैज्ञानिक भाषा में एलिलो रसायन कहा जाता है, अपने आस-पास उगने वाले बेकार समझे जाने वाले खरपतवारों को नष्ट करने का माद्दा रखते है| मारिया ने दुनिया भर से एकत्र किये गये हजारों धान के प्रकारों पर प्रयोग किये पर उन्हें सफलता नही मिली| मारिया को बहुत से पुरूस्कार भी मिले और कहा गया कि उनका एह अनूठा प्रयोग जिसे आधुनिक विज्ञान "राईस एलिलोपैथी" के नाम से जानता है, उनकी अनूठी सोच का परिणाम है|
भले ही छत्तीसगढ़ के किसान विशेषकर पारम्परिक चिकित्सक "राईस एलिलोपैथी" जैसे भारी-भरकम शब्दों को नही जानते पर वे दसों प्रकार के ऐसे धान को जानते हैं जिसमे ये गुण प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं| इनमे से ज्यादातर धान औषधीय धान है जिनका प्रयोग पारम्परिक चिकित्सा में होता रहा है| लाइचा नामक औषधीय धान इन अनोखे प्रकारों में से एक है| क्या धान की कोई एक किस्म सभी प्रकार के खरपतवारों को समाप्त करने में सक्षम है? यह प्रश्न अहम है पर इसका उत्तर नकारात्मक है| पारम्परिक चिकित्सक बताते हैं कि विशेष औषधीय धान ख़ास तरह के खरपतवारों पर ही अपना असर डालते हैं| पीढीयों पहले जब सोल और आल्टरनेंथेरा जैसे खरपतवारों ने छत्तीसगढ़ की धरती पर कदम नही रखा था तब सांवा, नरजेवा, सोमना, चुह्का और बदौर जैसे खरपतवार किसानो के लिए सिरदर्द माने जाते थे| लाइचा का प्रयोग उन खेतों में होता था जहां सांवा की अधिकता होती थी| माई सांवा पर इसका विशेष प्रभाव होता था| खेतों में लाइचा लगाने से पूर्व तरह-तरह के उपचार किये जाते थे| बीजों को वानस्पतिक घोलों में भिगोया जाता था| खेत में आस-पास उगने वाले औषधीय वृक्षों के सत्व डाले जाते थे| इस पूरी परेड का उद्देश्य लाइचा के पौधों को मजबूत बनाना था ताकि पानी से भरे खेत में वह पर्याप्त मात्रा में एलिलोरसायनो का स्त्राव कर सके सांवा जैसे कड़े प्रतिस्पर्धी को हरा सके| राज्य के बुजुर्ग किसानो के पास यह अद्भुत ज्ञान था पर पारम्परिक खेती के दिन लदने और नई अधिक उपज देने वाले प्रकारों के आगमन से यह पारम्परिक ज्ञान बिना दस्तावेजीकरण के नष्ट होता गया| आज बहुत कम ऐसे बुजुर्ग किसान हमारे बीच है जो इस पारम्परिक कृषि विधि के बारे में जानते हैं|
राज्य में कृषि अनुसन्धान पर प्रतिदिन जनता की गाढी कमाई के पैसे पानी की तरह बहाए जाते हैं| राज्य के शोध संस्थानों ने महंगी विदेश यात्रा करके विदेशी तकनीक को राज्य के किसानो पर थोपने में कोई कसर नही छोडी पर अपने ही राज्य के अनोखे पारम्परिक कृषि ज्ञान और असली कृषि वैज्ञानिकों यानि किसानो को कभी महत्व ही नही दिया| सही मायनों में "राईस एलिलोपैथी" दुनिया को भारत की सौगात है न कि किसी विदेशी वैज्ञानिक की सोच का परिणाम|
छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों के पारम्परिक चिकित्सक धान के खेतों में उग रहे खरपतवारों का प्रयोग पारम्परिक औषधीय मिश्रणों में करते रहे हैं| वे बताते है कि जब लीवर के रोगों की चिकित्सा में दूबी के प्रयोग के लिए वे धान के खेतों का रुख करते हैं तो उनकी नजर ऐसे खेतों पर होती है जहां विशेष औषधीय धान की खेती हो रही हो| पुराने जमाने में वे लाइचा के खेतों की ओर जाते थे और धान के आस-पास उग रहे दूबी को एकत्र कर लेते थे| लाइचा के एलिलोरसायन दूबी को नुकसान नही पहुंचाते हैं| आज जब लाइचा की खेती नही हो रही है ऐसे में पारम्परिक चिकित्सक औषधीय गुण सम्पन्न दूबी नही प्राप्त कर पाते हैं| धमतरी क्षेत्र के पारम्परिक चिकित्सक अपनी आवश्यकता के लिए लाइचा के करीबी प्रकार को बाडी में लगा लेते हैं और फिर उसके सत्व से दूबी को सींच लेते हैं| इससे सकारात्मक प्रभाव तो होते हैं पर लाइचा के खेत से एकत्र की गयी दूबी की तरह नही|
औषधीय धानो की पहचान और उनके पारम्परिक उपयोगों में दक्ष पारम्परिक चिकित्सक उन्हें जड की सहायता से पहचान लेते हैं| जड़ों को पानी में भिगोकर रखा जाता है और फिर तुलसी के काढ़े से मुंह साफ़ करके जड़ों को चबाया जाता है| लाइचा की जड कसैली लगती है| यह विशेष स्वाद लाइचा को हजारों किस्मो से अलग पहचान देता है| पंकज अवधिया ने अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणों के दौरान छत्तीसगढ़ के दूरस्थ अंचलों से लाइचा के तीन सौ से अधिक नमूने एकत्र किये पर कुछ ही नमूने पारम्परिक चिकित्सकों की कसौटी पर खरे उतरे| ये नमूने उन पारम्परिक चिकित्सको के पास सुरक्षित हैं जो इनके दुर्लभ उपयोगों को विषय में जानते हैं|
आम किसान लाइचा को उसके एक और अनोखे गुणों के कारण जानते हैं| एक विशेष प्रकार के त्वचा रोग को स्थानीय भाषा में लाइचा कहा जाता है| इस रोग की चिकित्सा में इस धान का प्रयोग घरेलू औषधी के रूप में पहले किया जाता था| नित नये प्रयोग करने को आतुर राज्य के युवा पारम्परिक चिकित्सक श्वेत कुष्ठ या ल्यूकोडर्मा में इसके आंतरिक प्रयोग की सम्भावना खोज रहे हैं ताकि इस रोग से प्रभावित रोगियों की बढती संख्या को राहत दिलवाई जा सके|
डायबीटीज की जटिल अवस्था में जब रोगियों की आँखे प्रभावित होने लगती है और वे अंधत्व की ओर बढने लगते है तब पारम्परिक चिकित्सक सांवा पर आधारित पारम्परिक औषधीय मिश्रणों का प्रयोग करते हैं| पर सर्व गुण सम्पन्न सांवा की अपनी सीमाएं हैं| इसका अधिक प्रयोग पाचन तंत्र को बिगाड़ देता है| ऐसे में पारम्परिक चिकित्सक लाइचा को याद करते हैं| लाइचा न केवल खेत में बल्कि शरीर के अंदर भी सांवा को प्रभावित करता लगता है| भात के रूप में इसका नियमित सेवन सांवा के बुरे प्रभावों पर अंकुश लगा देता है| ऐसे स्थानों में जहां लाइचा उपलब्ध नही है पारम्परिक चिकित्सक सांवा पर आधारित पारम्परिक मिश्रणों का प्रयोग नही करते है जिससे इन मिश्रणों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है|
प्रतिवर्ष राज्य के किसान बड़ी मात्रा में खरपतवारनाशियों का प्रयोग करते हैं| कृषि श्रमिको की घटती उपलब्धता उन्हें मजबूर करती है कि वे सब कुछ जानते हुए भी रसायनों का प्रयोग करे| कृषि रसायनों का बढ़ता प्रयोग जहां एक ओर खरपतवारों को प्रतिरोधक बनाकर सुपर वीड का विकास कर रहा है वही जमीन व भूमिगत जल स्त्रोतों को सदा के लिए प्रदूषित कर रहा है| किसान और उसका परिवार भी अपना स्वास्थ्य खो रहा है| ऐसे में लाइचा जैसे अनोखे प्राकृतिक उपहारों का स्मरण बार-बार हो आता है| धान के अधिक उत्पादन के कीर्तिमान तोड़ने की बजाय यदि गुणवता पर योजनाकार ध्यान दे, राज्य की तस्वीर ही बदल जायेगी|
All Rights Reserved
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पंकज अवधिया ने "वंडर मेडीसिनल राईस लाइचा इन राईस बाउल आफ इंडिया" नामक एक वैज्ञानिक रपट तैयार की जिसमे लाइचा के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है| यह रपट इंटरनेट पर उपलब्ध है|
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- पंकज अवधिया
भले ही छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहकर हमारे योजनाकार इतराते हों पर यह कडवा सत्य है कि राज्य में औषधीय धान के विभिन्न प्रकारों की कटोरा भर भी सुध कभी नही ली गयी| इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि अब लाइचा जैसे औषधीय धान ढूँढे नही मिलते हैं|
कुछ वर्षों पहले इंटरनेशनल राईस रिसर्च इंस्टीटयूट, फिलीपींस में डा.मारिया ओलोफ्सडाटर ने ऐसी धान की प्रजाति की खोज के लिए करोड़ो रुपये पानी की तरह बहाए जिसमे अपने आस-पास उगने वाले खरपतवारों को नष्ट करने की क्षमता हो| अर्थात सीधे शब्दों में यदि कहा जाय तो एक बार धान के विशेष प्रकार को खेत में लगाने के बाद खरपतवार नियंत्रण की जरूरत ही नही| धान के पौधों से निकलने वाला प्राकृतिक रसायन जिसे वैज्ञानिक भाषा में एलिलो रसायन कहा जाता है, अपने आस-पास उगने वाले बेकार समझे जाने वाले खरपतवारों को नष्ट करने का माद्दा रखते है| मारिया ने दुनिया भर से एकत्र किये गये हजारों धान के प्रकारों पर प्रयोग किये पर उन्हें सफलता नही मिली| मारिया को बहुत से पुरूस्कार भी मिले और कहा गया कि उनका एह अनूठा प्रयोग जिसे आधुनिक विज्ञान "राईस एलिलोपैथी" के नाम से जानता है, उनकी अनूठी सोच का परिणाम है|
भले ही छत्तीसगढ़ के किसान विशेषकर पारम्परिक चिकित्सक "राईस एलिलोपैथी" जैसे भारी-भरकम शब्दों को नही जानते पर वे दसों प्रकार के ऐसे धान को जानते हैं जिसमे ये गुण प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं| इनमे से ज्यादातर धान औषधीय धान है जिनका प्रयोग पारम्परिक चिकित्सा में होता रहा है| लाइचा नामक औषधीय धान इन अनोखे प्रकारों में से एक है| क्या धान की कोई एक किस्म सभी प्रकार के खरपतवारों को समाप्त करने में सक्षम है? यह प्रश्न अहम है पर इसका उत्तर नकारात्मक है| पारम्परिक चिकित्सक बताते हैं कि विशेष औषधीय धान ख़ास तरह के खरपतवारों पर ही अपना असर डालते हैं| पीढीयों पहले जब सोल और आल्टरनेंथेरा जैसे खरपतवारों ने छत्तीसगढ़ की धरती पर कदम नही रखा था तब सांवा, नरजेवा, सोमना, चुह्का और बदौर जैसे खरपतवार किसानो के लिए सिरदर्द माने जाते थे| लाइचा का प्रयोग उन खेतों में होता था जहां सांवा की अधिकता होती थी| माई सांवा पर इसका विशेष प्रभाव होता था| खेतों में लाइचा लगाने से पूर्व तरह-तरह के उपचार किये जाते थे| बीजों को वानस्पतिक घोलों में भिगोया जाता था| खेत में आस-पास उगने वाले औषधीय वृक्षों के सत्व डाले जाते थे| इस पूरी परेड का उद्देश्य लाइचा के पौधों को मजबूत बनाना था ताकि पानी से भरे खेत में वह पर्याप्त मात्रा में एलिलोरसायनो का स्त्राव कर सके सांवा जैसे कड़े प्रतिस्पर्धी को हरा सके| राज्य के बुजुर्ग किसानो के पास यह अद्भुत ज्ञान था पर पारम्परिक खेती के दिन लदने और नई अधिक उपज देने वाले प्रकारों के आगमन से यह पारम्परिक ज्ञान बिना दस्तावेजीकरण के नष्ट होता गया| आज बहुत कम ऐसे बुजुर्ग किसान हमारे बीच है जो इस पारम्परिक कृषि विधि के बारे में जानते हैं|
राज्य में कृषि अनुसन्धान पर प्रतिदिन जनता की गाढी कमाई के पैसे पानी की तरह बहाए जाते हैं| राज्य के शोध संस्थानों ने महंगी विदेश यात्रा करके विदेशी तकनीक को राज्य के किसानो पर थोपने में कोई कसर नही छोडी पर अपने ही राज्य के अनोखे पारम्परिक कृषि ज्ञान और असली कृषि वैज्ञानिकों यानि किसानो को कभी महत्व ही नही दिया| सही मायनों में "राईस एलिलोपैथी" दुनिया को भारत की सौगात है न कि किसी विदेशी वैज्ञानिक की सोच का परिणाम|
छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों के पारम्परिक चिकित्सक धान के खेतों में उग रहे खरपतवारों का प्रयोग पारम्परिक औषधीय मिश्रणों में करते रहे हैं| वे बताते है कि जब लीवर के रोगों की चिकित्सा में दूबी के प्रयोग के लिए वे धान के खेतों का रुख करते हैं तो उनकी नजर ऐसे खेतों पर होती है जहां विशेष औषधीय धान की खेती हो रही हो| पुराने जमाने में वे लाइचा के खेतों की ओर जाते थे और धान के आस-पास उग रहे दूबी को एकत्र कर लेते थे| लाइचा के एलिलोरसायन दूबी को नुकसान नही पहुंचाते हैं| आज जब लाइचा की खेती नही हो रही है ऐसे में पारम्परिक चिकित्सक औषधीय गुण सम्पन्न दूबी नही प्राप्त कर पाते हैं| धमतरी क्षेत्र के पारम्परिक चिकित्सक अपनी आवश्यकता के लिए लाइचा के करीबी प्रकार को बाडी में लगा लेते हैं और फिर उसके सत्व से दूबी को सींच लेते हैं| इससे सकारात्मक प्रभाव तो होते हैं पर लाइचा के खेत से एकत्र की गयी दूबी की तरह नही|
औषधीय धानो की पहचान और उनके पारम्परिक उपयोगों में दक्ष पारम्परिक चिकित्सक उन्हें जड की सहायता से पहचान लेते हैं| जड़ों को पानी में भिगोकर रखा जाता है और फिर तुलसी के काढ़े से मुंह साफ़ करके जड़ों को चबाया जाता है| लाइचा की जड कसैली लगती है| यह विशेष स्वाद लाइचा को हजारों किस्मो से अलग पहचान देता है| पंकज अवधिया ने अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणों के दौरान छत्तीसगढ़ के दूरस्थ अंचलों से लाइचा के तीन सौ से अधिक नमूने एकत्र किये पर कुछ ही नमूने पारम्परिक चिकित्सकों की कसौटी पर खरे उतरे| ये नमूने उन पारम्परिक चिकित्सको के पास सुरक्षित हैं जो इनके दुर्लभ उपयोगों को विषय में जानते हैं|
आम किसान लाइचा को उसके एक और अनोखे गुणों के कारण जानते हैं| एक विशेष प्रकार के त्वचा रोग को स्थानीय भाषा में लाइचा कहा जाता है| इस रोग की चिकित्सा में इस धान का प्रयोग घरेलू औषधी के रूप में पहले किया जाता था| नित नये प्रयोग करने को आतुर राज्य के युवा पारम्परिक चिकित्सक श्वेत कुष्ठ या ल्यूकोडर्मा में इसके आंतरिक प्रयोग की सम्भावना खोज रहे हैं ताकि इस रोग से प्रभावित रोगियों की बढती संख्या को राहत दिलवाई जा सके|
डायबीटीज की जटिल अवस्था में जब रोगियों की आँखे प्रभावित होने लगती है और वे अंधत्व की ओर बढने लगते है तब पारम्परिक चिकित्सक सांवा पर आधारित पारम्परिक औषधीय मिश्रणों का प्रयोग करते हैं| पर सर्व गुण सम्पन्न सांवा की अपनी सीमाएं हैं| इसका अधिक प्रयोग पाचन तंत्र को बिगाड़ देता है| ऐसे में पारम्परिक चिकित्सक लाइचा को याद करते हैं| लाइचा न केवल खेत में बल्कि शरीर के अंदर भी सांवा को प्रभावित करता लगता है| भात के रूप में इसका नियमित सेवन सांवा के बुरे प्रभावों पर अंकुश लगा देता है| ऐसे स्थानों में जहां लाइचा उपलब्ध नही है पारम्परिक चिकित्सक सांवा पर आधारित पारम्परिक मिश्रणों का प्रयोग नही करते है जिससे इन मिश्रणों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है|
प्रतिवर्ष राज्य के किसान बड़ी मात्रा में खरपतवारनाशियों का प्रयोग करते हैं| कृषि श्रमिको की घटती उपलब्धता उन्हें मजबूर करती है कि वे सब कुछ जानते हुए भी रसायनों का प्रयोग करे| कृषि रसायनों का बढ़ता प्रयोग जहां एक ओर खरपतवारों को प्रतिरोधक बनाकर सुपर वीड का विकास कर रहा है वही जमीन व भूमिगत जल स्त्रोतों को सदा के लिए प्रदूषित कर रहा है| किसान और उसका परिवार भी अपना स्वास्थ्य खो रहा है| ऐसे में लाइचा जैसे अनोखे प्राकृतिक उपहारों का स्मरण बार-बार हो आता है| धान के अधिक उत्पादन के कीर्तिमान तोड़ने की बजाय यदि गुणवता पर योजनाकार ध्यान दे, राज्य की तस्वीर ही बदल जायेगी|
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पंकज अवधिया ने "वंडर मेडीसिनल राईस लाइचा इन राईस बाउल आफ इंडिया" नामक एक वैज्ञानिक रपट तैयार की जिसमे लाइचा के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है| यह रपट इंटरनेट पर उपलब्ध है|
Updated Information and Links on March 05, 2012
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