टकला, चने की इल्ली और जैविक खेती कर रहे किसान
पारम्परिक कृषि ज्ञान और किसानो के बीच जीवन के स्वर्णिम पल-१
- पंकज अवधिया
टकला, चने की इल्ली और जैविक खेती कर रहे किसान
"और टकला है कि नहीं?" यह मेरा अंतिम प्रश्न था|
"टकला? वह तो मुझे नहीं पता पर आप अपने मोबाइल की सहायता से उसकी तस्वीर भेजेंगे तो मैं पहचान लूंगा| या फिर आपको मैं एक ई-मेल पता देता हूँ उसमे आप तस्वीरें भेज दे| कल मेरा लड़का पड़ोस के बड़े गाँव से वह तस्वीर ले आयेगा|" उस ओर से आवाज आयी|
यह आवाज एक किसान की थी| युवा किसान आधुनिक संचार माध्यमों से जुड़ रहे हैं और कृषि में उनका लाभ उठा रहे हैं यह तो हम सब देख ही रहे हैं पर इस बार बुजुर्ग किसान में युवाओं जैसा उत्साह देखकर मैं अभिभूत हो गया| इन किसान ने बड़े क्षेत्र में चने की फसल लगाई थी| हर साल की तरह इस बार भी चने की इल्ली का आक्रमण हुआ था| पिछले दो सालों से उन्होंने जैविक खेती का रुख किया था| पहले-पहल वे नीम, धतूरे और दूसरी जहरीली वनस्पतियों का प्रयोग करते रहे पर जब उन्होंने राजस्थान से छपने वाले कृषि अमृत में मेरा लेख देखा तो उन्होंने मुझसे मिलने का मन बनाया| मेरा वह लेख देश के पारम्परिक कृषि ज्ञान से सम्बंधित था| मैंने लिखा था कि नीम, धतूरे, आक के अलावा अनगिनत अनजाने पर प्रभावशाली उपाय हैं जिनकी सहायता से हमारे किसान पीढीयों से जैविक खेती करते आये हैं| वक्त के साथ उन्हें भुला दिया गया| मैंने एक दशक से अधिक समय तक देश भर में घूम-घूम कर इस ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया है| फलस्वरूप मेरे डेटाबेस में लाखों पारम्परिक नुस्खे एकत्र हो गए हैं| अब यह प्रयास जारी है कि इस पारम्परिक ज्ञान में वैज्ञानिक पुट डालकर फिर से इसे किसानो के बीच लोकप्रिय किया जाए और जैविक कृषि के लिए एक नयी क्रान्ति का सूत्रपात किया जाए|
चलिए वापस चने की खेती कर रहे बुजुर्ग किसान की ओर लौटते हैं| दो सालों तक नीम, धतूरे, आक, करंज जैसी वनस्पतियों को आजमाने के बाद जब इस बार इल्लियों पर इनका असर कम होने लगा तो उनके परिजनों ने दबाव डाला कि रसायनों का प्रयोग किया जाय ताकि अधिक नुक्सान न हो| कृषि रसायन बनाने वाली कम्पनियों का जमावडा अक्सर उन किसान के घर लगा होता था जब वे रसायनिक खेती करते थे| इन बुजुर्ग किसान को सारा गांव अपना मार्गदर्शक मानता था| जब से उन्होंने जैविक खेती की राह पकड़ी, कम्पनी वालों के मन में यह डर बैठ गया कि कही इनकी देखा देखी पूरा गांव ही जैविक खेती का रुख न कर लें|
मैंने उनसे आस-पास खरपतवार की तरह उग रही वन्सप्तियों की सूची माँगी और फिर फोन से ही उनके उपयोग सुझाने का प्रस्ताव दिया पर वे मुझे आने-जाने का सारा खर्च वहन कर बुलाना चाहते थे| साथ ही परामर्श शुल्क भी देना चाहते थे| किसानो से कुछ लेना बड़ा अटपटा लगता है| इसलिए मैंने उनके खर्च को न्यूनतम करने का मन बनाया और टैक्सी लेने की बजाय खुद की गाडी से गांव की ओर रुख किया|
सीधे खेत पहुंचना जरूरी था क्योकि इल्ली का प्रकोप कम समय में बहुत अधिक कहर ढा सकता है| मैंने पीले फूलों वाले शीतकालीन खरपतवार टकला को दूर से ही पहचान लिया|
"तो इसे आप टकला कहते हैं| हमारे गांव में इसका नाम अभी तक नहीं रखा गया है| यह कभी हमारे काम नहीं आया| अपने आप उगता है और बिना नुक्सान पहुंचाए खत्म हो जाता है| अब आप आ गए हैं तो हमें इसके नए उपयोगों की जानकारी मिलेगी|" उन्होंने कहा|
मैंने इशारा किया और कुछ ही समय में पर्याप्त मात्रा में टकला सहित दस प्रकार की वनस्पतियाँ एकत्र कर ली गयी| उनका सत्व निकाला गया और फिर घंटे भर में उसका छिडकाव आरम्भ हो गया| बड़ी संख्या में किसान आ चुके थे| मैंने उन्हें बताया कि टकला पर आधारित चार सौ से अधिक पारम्परिक नुस्खों की जानकारी मेरे डेटाबेस में है तो उनके आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा| देश के अलग-अलग भागों में इसे अलग-अलग नामों से पहचाना जाता है| टकला केवल फसलों को कीड़ों और रोगों से नहीं बचाता है बल्कि यह मनुष्यों के लिए उपयोगी वनस्पति है| इसके औषधीय उपयोगों के विषय में मैंने ज्यादा जानकारी नहीं दी क्योंकि स्व-चिकित्सा में आम लोग माहिर है और इसके चलते अक्सर वे अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार बैठते हैं| चैनल वाले बाबा एलो वेरा खाने को कहते हैं और आम लोग खाने लगते हैं| जब उन्हें परेशानी होती है तो फिर चैनल का रुख करते हैं तब तक बाबा जा चुके होते है| यह एक तरफा और आधा-अधूरा संवाद जन-स्वास्थ्य के लिए खतरा बनता जा रहा है|
टकला आधारित सत्व को असर दिखाने में एक दिन का वक्त लगाने वाला था| परिणाम आते तक रुकना संभव नहीं था , इसलिए लौटने की तैयारी करने लगा| सत्व को सही तरीके से कैसे डाला जाए और किस अवस्था में एकत्रण किया जाए इसकी जानकारी मैं पहले ही दे चुका था| टकला आधारित सत्व को कैसे और अधिक प्रभावी बनाया जाय इसकी भी जानकारी बुजुर्ग किसान को मिल गयी थी| गांव आते समय गांव के बाहर कुछ उपयोगी वृक्ष दिखे थे| एक छोटा सा जंगल था| मुझे लगा कि जंगल को पास से देख आना चाहिए| हो सकता है कुछ काम का मिल जाए| बुजुर्ग किसान ने अपने बेटे को साथ कर दिया| जंगल में कर्रा, भिर्रा और जर्रा जैसे उपयोगी वृक्ष दिख गए| इनके सत्वो के साथ टकला का सत्व बड़े प्रभावकारी ढंग से काम करता है| लौटकर मैंने इन सत्वो की जानकारी बुजुर्ग किसान को देनी चाही तो उन्होंने कहा कि पहले दी गयी जानकारी अपने आप में पर्याप्त है| यदि और जानकारी की जरूरत हुयी तो मुझे फिर से बुला लिया जाएगा|
वापसी से पहले मैंने बुजुर्ग किसान ने असफल नुस्खों के बारे में विस्तार से जानकारी ली और उन्हें आश्वस्त किया कि मैं जल्दी ही इसमें सुधार कर नए नुस्खों की जानकारी भेजूंगा|
दूसरे दिन अल सुबह ही बुजुर्ग किसान का फोन आ गया| साथ में आमन्त्रण भी कि आस-पास के गाँव भी मेरी सेवायें लेना चाहते हैं| उन्हें लग रहा था कि नया काम मिलाने से मुझे अच्छा परामर्श शुल्क मिल जाएगा और इस तरह वे सफलता के लिए तहे दिल से धन्यवाद कर पायेंगे| मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे स्वयम ही इस ज्ञान का प्रचार प्रसार करें| मुझे पारम्परिक चिकित्सकों से मिलने जंगल जाना है| एक सप्ताह से पहले वापसी संभव नहीं है|
उन्होने अनुरोध स्वीकार कर लिया| (क्रमश:)
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http://pankajoudhia.com/contactus_pankaj.htm
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"और टकला है कि नहीं?" यह मेरा अंतिम प्रश्न था|
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यह आवाज एक किसान की थी| युवा किसान आधुनिक संचार माध्यमों से जुड़ रहे हैं और कृषि में उनका लाभ उठा रहे हैं यह तो हम सब देख ही रहे हैं पर इस बार बुजुर्ग किसान में युवाओं जैसा उत्साह देखकर मैं अभिभूत हो गया| इन किसान ने बड़े क्षेत्र में चने की फसल लगाई थी| हर साल की तरह इस बार भी चने की इल्ली का आक्रमण हुआ था| पिछले दो सालों से उन्होंने जैविक खेती का रुख किया था| पहले-पहल वे नीम, धतूरे और दूसरी जहरीली वनस्पतियों का प्रयोग करते रहे पर जब उन्होंने राजस्थान से छपने वाले कृषि अमृत में मेरा लेख देखा तो उन्होंने मुझसे मिलने का मन बनाया| मेरा वह लेख देश के पारम्परिक कृषि ज्ञान से सम्बंधित था| मैंने लिखा था कि नीम, धतूरे, आक के अलावा अनगिनत अनजाने पर प्रभावशाली उपाय हैं जिनकी सहायता से हमारे किसान पीढीयों से जैविक खेती करते आये हैं| वक्त के साथ उन्हें भुला दिया गया| मैंने एक दशक से अधिक समय तक देश भर में घूम-घूम कर इस ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया है| फलस्वरूप मेरे डेटाबेस में लाखों पारम्परिक नुस्खे एकत्र हो गए हैं| अब यह प्रयास जारी है कि इस पारम्परिक ज्ञान में वैज्ञानिक पुट डालकर फिर से इसे किसानो के बीच लोकप्रिय किया जाए और जैविक कृषि के लिए एक नयी क्रान्ति का सूत्रपात किया जाए|
चलिए वापस चने की खेती कर रहे बुजुर्ग किसान की ओर लौटते हैं| दो सालों तक नीम, धतूरे, आक, करंज जैसी वनस्पतियों को आजमाने के बाद जब इस बार इल्लियों पर इनका असर कम होने लगा तो उनके परिजनों ने दबाव डाला कि रसायनों का प्रयोग किया जाय ताकि अधिक नुक्सान न हो| कृषि रसायन बनाने वाली कम्पनियों का जमावडा अक्सर उन किसान के घर लगा होता था जब वे रसायनिक खेती करते थे| इन बुजुर्ग किसान को सारा गांव अपना मार्गदर्शक मानता था| जब से उन्होंने जैविक खेती की राह पकड़ी, कम्पनी वालों के मन में यह डर बैठ गया कि कही इनकी देखा देखी पूरा गांव ही जैविक खेती का रुख न कर लें|
मैंने उनसे आस-पास खरपतवार की तरह उग रही वन्सप्तियों की सूची माँगी और फिर फोन से ही उनके उपयोग सुझाने का प्रस्ताव दिया पर वे मुझे आने-जाने का सारा खर्च वहन कर बुलाना चाहते थे| साथ ही परामर्श शुल्क भी देना चाहते थे| किसानो से कुछ लेना बड़ा अटपटा लगता है| इसलिए मैंने उनके खर्च को न्यूनतम करने का मन बनाया और टैक्सी लेने की बजाय खुद की गाडी से गांव की ओर रुख किया|
सीधे खेत पहुंचना जरूरी था क्योकि इल्ली का प्रकोप कम समय में बहुत अधिक कहर ढा सकता है| मैंने पीले फूलों वाले शीतकालीन खरपतवार टकला को दूर से ही पहचान लिया|
"तो इसे आप टकला कहते हैं| हमारे गांव में इसका नाम अभी तक नहीं रखा गया है| यह कभी हमारे काम नहीं आया| अपने आप उगता है और बिना नुक्सान पहुंचाए खत्म हो जाता है| अब आप आ गए हैं तो हमें इसके नए उपयोगों की जानकारी मिलेगी|" उन्होंने कहा|
मैंने इशारा किया और कुछ ही समय में पर्याप्त मात्रा में टकला सहित दस प्रकार की वनस्पतियाँ एकत्र कर ली गयी| उनका सत्व निकाला गया और फिर घंटे भर में उसका छिडकाव आरम्भ हो गया| बड़ी संख्या में किसान आ चुके थे| मैंने उन्हें बताया कि टकला पर आधारित चार सौ से अधिक पारम्परिक नुस्खों की जानकारी मेरे डेटाबेस में है तो उनके आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा| देश के अलग-अलग भागों में इसे अलग-अलग नामों से पहचाना जाता है| टकला केवल फसलों को कीड़ों और रोगों से नहीं बचाता है बल्कि यह मनुष्यों के लिए उपयोगी वनस्पति है| इसके औषधीय उपयोगों के विषय में मैंने ज्यादा जानकारी नहीं दी क्योंकि स्व-चिकित्सा में आम लोग माहिर है और इसके चलते अक्सर वे अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार बैठते हैं| चैनल वाले बाबा एलो वेरा खाने को कहते हैं और आम लोग खाने लगते हैं| जब उन्हें परेशानी होती है तो फिर चैनल का रुख करते हैं तब तक बाबा जा चुके होते है| यह एक तरफा और आधा-अधूरा संवाद जन-स्वास्थ्य के लिए खतरा बनता जा रहा है|
टकला आधारित सत्व को असर दिखाने में एक दिन का वक्त लगाने वाला था| परिणाम आते तक रुकना संभव नहीं था , इसलिए लौटने की तैयारी करने लगा| सत्व को सही तरीके से कैसे डाला जाए और किस अवस्था में एकत्रण किया जाए इसकी जानकारी मैं पहले ही दे चुका था| टकला आधारित सत्व को कैसे और अधिक प्रभावी बनाया जाय इसकी भी जानकारी बुजुर्ग किसान को मिल गयी थी| गांव आते समय गांव के बाहर कुछ उपयोगी वृक्ष दिखे थे| एक छोटा सा जंगल था| मुझे लगा कि जंगल को पास से देख आना चाहिए| हो सकता है कुछ काम का मिल जाए| बुजुर्ग किसान ने अपने बेटे को साथ कर दिया| जंगल में कर्रा, भिर्रा और जर्रा जैसे उपयोगी वृक्ष दिख गए| इनके सत्वो के साथ टकला का सत्व बड़े प्रभावकारी ढंग से काम करता है| लौटकर मैंने इन सत्वो की जानकारी बुजुर्ग किसान को देनी चाही तो उन्होंने कहा कि पहले दी गयी जानकारी अपने आप में पर्याप्त है| यदि और जानकारी की जरूरत हुयी तो मुझे फिर से बुला लिया जाएगा|
वापसी से पहले मैंने बुजुर्ग किसान ने असफल नुस्खों के बारे में विस्तार से जानकारी ली और उन्हें आश्वस्त किया कि मैं जल्दी ही इसमें सुधार कर नए नुस्खों की जानकारी भेजूंगा|
दूसरे दिन अल सुबह ही बुजुर्ग किसान का फोन आ गया| साथ में आमन्त्रण भी कि आस-पास के गाँव भी मेरी सेवायें लेना चाहते हैं| उन्हें लग रहा था कि नया काम मिलाने से मुझे अच्छा परामर्श शुल्क मिल जाएगा और इस तरह वे सफलता के लिए तहे दिल से धन्यवाद कर पायेंगे| मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे स्वयम ही इस ज्ञान का प्रचार प्रसार करें| मुझे पारम्परिक चिकित्सकों से मिलने जंगल जाना है| एक सप्ताह से पहले वापसी संभव नहीं है|
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Updated Information and Links on March 05, 2012
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important ingredient of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous
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important ingredient of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous
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