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Showing posts from April, 2008

गाजर घास का चने की फसल पर दुष्प्रभाव

घातक खरपतवार गाजर घास पर शोध सन्दर्भ-1 Oudhia, P., Kolhe, S.S. and Tripathi, R.S. (1997). Allelopathic effect of white top ( Parthenium hysterophorus L. ) on chickpea . Legume Research. 20 (2): 117-120. यह शोध पत्र गाजर घास से तैयार विभिन्न सत्वो के चने की फसल के अंकुरण और पौध ओज पर होने वाले दुष्प्रभावो को दर्शाता है। इस प्रयोग से यह जानने मे सहायता मिलती है कि गाजर घास का कौन सा भाग इस फसल के लिये अधिक नुकसानदायक है। यह शोध पत्र उस शोध कार्य पर आधारित है जो मैने इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर मे पढाई के दौरान किया था। मूल शोध पत्र देश-विदेश के सभी पुस्तकालयो मे उपलब्ध है। लेग्यूम रिसर्च एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका है।

आइये! गाजर घास मुक्त भारत का स्वप्न साकार करे

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-27, अंतिम भाग ) - पंकज अवधिया गाजर घास के साथ बीते दो दशको ने काफी सबक सीखाये। मैने इस खरपतवार के विभिन्न पहलुओ को करीब से जाना। इस पर अनुसन्धान किया और अपनी क्षमता के अनुसार आम लोगो को जागृत किया। दुनिया भर के गाजर घास के विशेषज्ञ आज एक मंच पर तो आ गये है पर अभी भी उनमे आपस संवादहीनता की स्थिति है। आने वाले समय मे मेरा यह प्रयास रहेगा कि मै इस संवादहीनता को दूर कर उन्हे लगातार चर्चा करने के लिये प्रेरित करुँ। गाजर घास पर सैकडॉ विशेषज्ञ कार्य कर रहे है पर बहुत कम विशेषज्ञ ऐसे है जो केवल गाजर घास पर काम कर रहे है। जो दिन-रात, सोते-उठते सिर्फ इसके विषय मे सोचते रहते है। जिस तेजी से गाजर घास फैल रही है उसे देखते हुये ऐसे समर्पित विशेषज्ञो की फौज तैयार करने की जरुरत है। ऐसी फौज उन स्वयमसेवियो की भी बनाने की आवश्यकत्ता है जो आत्म प्रेरणा से गाजर घास पर काम करना चाहते है पर उन्हे कही से प्रोत्साहन नही मिल रहा है। यह आम लोगो के साथ समस्या है कि वे जल्दी से समस्याओ को भूल जाते है और नयी समस्याओ मे उलझ जाते है। हमारा मीड

खबरदार जो गाजर घास को विदेशी कहा तो-----

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-26) - पंकज अवधिया आज सभी इस सत्य को जानते है कि गाजर घास आयातित गेहूँ के साथ विदेश से भारत लायी गयी पर हमारे बीच विशेषज्ञो का एक ऐसा समूह भी है जो इस नग्न सत्य को झुठलाने मे जुटा हुआ है। अलग-अलग मंचो से जब भी कोई इस सत्य को दोहराता है तो वे खडे होकर अपना विरोध जताते है। ये वरिष्ठ है और कनिष्ठो विशेषकर उनके नीचे काम कर रहे कनिष्ठो पर जबरदस्त बनाये हुये है। जब इस सत्य को दर्शाता कोई शोध पत्र प्रकाशित किया जाता है तो भी इसमे कैची चला दी जाती है। विशेषज्ञो का यह समूह तर्क देता है कि आयातित गेहूँ के साथ लाये जाने से दशको पहले से गाजर घास भारत मे उपस्थित थी। वे एक ऐसे शोध पत्र का हवाला देते है जिसमे कहा गया है कि गाजर घास बहुत पहले से भारत मे है। यह दावा सत्य से परे लगता है। यदि गाजर घास पहले से उपस्थित है तो फिर क्यो नही यह पूरे देश मे उस गति से फैली जिस गति से आजादी के बाद लाये जाने के बाद फैली। फिर एक ही शोधकर्ता ने ऐसा दावा क्यो किया है? यदि गाजर घास पहले से थी तो इसका उल्लेख उस समय की प्रसिद्ध पुस्तको मे आना चाहिये था। पर

गाजर घास और किसानो की आत्महत्या

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-25) - पंकज अवधिया दुनिया भर के शोध परिणाम यह बताते है कि गाजर घास यदि खेतो मे फसलो के साथ प्रतियोगिता करे तो पूरी फसल भी चौपट हो सकती है। पहले यह बेकार जमीन और मेडो तक सीमित थी पर अब खेतो मे इसके प्रवेश कर जाने से भारतीय कृषि को बहुत नुकसान हो रहा है। ये नुकसान प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनो है। नमी, प्रकाश और भोजन के लिये गाजर घास फसल से प्रतियोगिता करती है। इसके परागकण पर-परागण करने वाली फसलो के संवेदी अंगो मे एकत्र हो जाते है जिससे उनमे परागण नही हो पाता है। खेतो मे गाजर घास किसानो को सीधे प्रभावित करती है। उसके पशु भी प्रभावित होते है। गाजर घास के जहरीले रसायन मिट्टी की उर्वर क्षमता को प्रभावित करते है। किसान के पास रसायनो के प्रयोग के अलावा कोई सशक्त विकल्प नही होता। जैविक खेती कर रहे किसान बडी दुविधा मे पड जाते है। गाजर घास का किसानो, फसलो और पशुओ पर यह दुष्प्रभाव दशको से निरंतर हो रहा है। आज हम विदर्भ के किसानो की आत्महत्या के विषय मे जानते है पर गाजर घास पर आयोजित प्रथम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन मे बताया गया कि गा

आखिर कीमत चुकानी ही पडी गाजर घास पर काम करने की

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-24) - पंकज अवधिया शुरु के कुछ वर्षो तक गाजर घास के साथ काम करने पर मुझे तकलीफ नही हुयी पर धीरे-धीरे दमा (अस्थमा) जैसे लक्षण आने लगे। पहले लगा कि आम सर्दी-खाँसी है। इसकी दवा चलती रही पर जब साधारण दवाओ ने असर दिखाना बन्द कर दिया और मर्ज बढता ही गया तो आधुनिक चिकित्सको को परागकणो से होने वाले एलर्जी का शक हुआ। उन्होने दिनचर्या का ब्यौरा माँगा तो उन्हे दिन मे कई बार ‘ गाजर घास ’ शब्द सुनायी दिया। उनके कान खडे हो गये। जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि रोग की जड गाजर घास है। उन्होने कठोर शब्दो मे कहा कि गाजर घास से दूर रहे। आप ही बताइये क्या यह सम्भव है? ऐसा कैसे हो सकता था कि मै अभियान से दूर रहूँ और आम लोगो को गाजर घास नष्ट करने के लिये प्रेरित करुँ? चिकित्सको की बात अनसुनी कर दी। जब भी साँस लेने मे तकलीफ होती तो दमा का औषधियाँ ले लेता था। एक रात पानी सिर से ऊपर पहुँच गया। साँस की तकलीफ के कारण अस्पताल की शरण लेनी पडी। चिकित्सको ने कहा कि एक इंजैक्शन लगवा लीजिये तो तीन माह तक आप गाजर घास के पास जाकर भी नुकसान से बचे रहेंगे। इस बारे मे छ

गाजर घास से बेहाल वन्य प्राणी

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-23) - पंकज अवधिया गाजर घास से नाना प्रकार के रोग होते है। इससे मनुष्यो और फसलो को बडा नुकसान होता है। यह सब तो आप सुनते-पढते रहते है। पर यह विदेशी खरपतवार किस तरह से वन्य जीवो के लिये अभिशाप बना हुआ है इस बारे बहुत कम ही सुनने-पढने मे आता है। देश का शायद ही ऐसा कोई वनीय क्षेत्र होगा जहाँ इसका प्रकोप नही है। चूँकि गाजर घास पर शोध मनुष्यो और फसलो को केन्द्रित कर हो रहे है इसलिये वन्य जीवो पर इसके असर के आँकडे नही मिलते है। आप जानते ही है कि जब गाय गल्ती से गाजर घास खा जाती है तो उसका जहर दूध मे भी आ जाता है। विदेशो विशेषकर आस्ट्रेलिया जहाँ पशु माँस खाया जाता है, मे यह पाया गया है कि चारागाहो मे गाजर घास का प्रकोप पशु माँस उद्योग को बुरी तरह नुकसान पहुँचा रहा है। मध्य भारत के वनीय़ क्षेत्रो के निवासी बताते है कि गाजर घास का प्रकोप बरसात मे इस कदर बढ जाता है कि हिरणो को हरी घास के लिये गाजर घास की घनी आबादी से होकर गुजरना पडता है। कितना भी बचे पर गाजर घास हिरन के आहार तंत्र मे प्रवेश कर ही जाती है। हिरण के शरीर मे विष का प्रवेश मतल

गाजर घास पर दुनिया की पहली वेबसाइट

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-22) - पंकज अवधिया गाजर घास पर आयोजित प्रथम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान दुनिया भर के वैज्ञानिको ने यह तय किया कि एक संगठन बनाया जाये ताकि समान विचार वाले इतने सारे विशेषज्ञ मिलकर इस खरपतवार से निपट सके। इस संगठन का नाम रखा गया ‘ आईपान ’ (इंटरनेशनल पार्थेनियम नेटवर्क)। पर जैसा कि अक्सर होता है सम्मेलन के बाद सारा काम ठंडा पड गया। इन सब के लिये किसी एक को नेतृत्व सम्भालना पडता है और अक्सर लोग एक दूसरे से यह अपेक्षा करते रहते है। सम्मेलन से वापस लौटने के बाद मैने पत्र के माध्यम से सभी वैज्ञानिको को जोडे रखा और एक पत्रिका निकालने का निश्चय किया। इसका नाम रखा गया ‘ इंटरनेशनल पार्थेनियम न्यूज ’ । बमुश्किल से एक अंक निकल पाया कि फिर आर्थिक समस्या उठ खडी हुयी। सभी सदस्यो ने पैसे नही दिये और मुझे समझाया गया कि कम से कम एक साल तो इसे आप अपने खर्च पर चलाये। यह सम्भव नही था फिर सस्ते विकल्प की तलाश शुरु हुयी। अंत मे एक वेबपेज बनाकर यह काम शुरु करने का निर्णय हुआ। यह वेबपेज बन गया और मुम्बई से संचालित होने लगा। यह सभी के लिये मुफ्त था। इस

बिना आर्थिक मदद के दौडता गाजर घास पर एक संगठन

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-21) - पंकज अवधिया सारा देश जानता है कि गैर-सरकारी संगठन बनाकर काम करना घाटे का सौदा नही है। गाजर घास के लिये मैने वार एगेंस्ट पार्थेनियम (वाप) का गठन तो पहले ही कर लिया था। इसी के बैनर के तले गाजर घास के तमाम कार्यक्रम होते थे। कभी इसके पंजीयन की जरुरत नही पडी क्योकि जेब से ही इसे चलाते रहे। जब इस अभियान की प्रसिद्धि विदेशो तक पहुँची तो बहुत से संगठन सामने आ गये आर्थिक मदद के लिये। मुझे सलाह दी गयी कि मै एक सोसायटी बनाऊँ और उसका पंजीयन करवाऊँ। इसी के बाद पैसा मिल सकेगा। आनन-फानन मे पंजीयन की प्रक्रिया आरम्भ की। पता चला कि ‘ वार ’ शब्द होने के कारण ‘ वार एगेंस्ट पार्थेनियम ’ नाम से पंजीयन नही हो सकता। नया नाम सोचना होगा। नया नाम सोचा सोपाम (सोसायटी फार पार्थेनियम मैनेजमेंट)। यह नाम तो मंजूर हो गया पर उद्देश्यो मे आपत्ति लगती रही। इस बीच किसी ने सलाह दी कि जेब गर्म की जाये तो बिना आपत्ति के सब कुछ हो जायेगा। ऐसा ही हुआ। कुछ समय बाद आर्थिक अनुदानो के लिये चक्कर लगने लगे। पता चला कि इसमे भी एक पूरा चैनल है। सीधा रास्ता नही है

डाँ. महादेवप्पा : गाजर घास के लिये समर्पित एक जीवन

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-20) - पंकज अवधिया गाजर घास जागरुकता अभियान ने अभी जोर ही पकडा था कि धारवाड मे आयोजित इस पर प्रथम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के विषय मे जानकारी मिली। एक शोध पत्र तैयार किया और भेज दिया। इस सम्मेलन की फीस बहुत अधिक थी। आयोजनकर्ताओ को लिखा तो उन्होने कुछ छूट देने की बात कही। अपने खर्च पर ट्रेन पर सवार होकर मै धारवाड पहुँच गया। दुनिया के कोने-कोने से विशेषज्ञ आये थे। मन मे बडा उत्साह था कि इनके साथ मै भी इस सम्मेलन मे शिरकत कर रहा था। वहाँ एक शख्स को देखा जिसके कारण यह विराट आयोजन सम्भव हो पाया था। वे थे डाँ एम.महादेवप्पा। पता चला कि उन्होने धान पर बहुत काम किया है पर गाजर घास के लिये तो जैसे उन्होने अपना जीवन ही समर्पित कर दिया है। मेरी उनसे मुलाकात एक प्रतिभागी जैसी ही रही। सम्मेलन के बाद वापस आकर मैने गाजर घास पर हिन्दी मे एक पुस्तक लिखी। इसे डाँ. महादेवप्पा और उनके कार्यो को समर्पित किया। मैने यह पुस्तक उन्हे भेजी पर भाषा की समस्या होने के कारण शायद उन्होने जवाब नही दिया। अगले ही वर्ष एक दूसरे सम्मेलन मे मेरा फिर से धारवाड जाना हुआ।

गाजर घास का रावण और होली मे गाजर घास

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-19) - पंकज अवधिया उडीसा मे एक व्याख्यान के बाद लोगो ने सलाह दी कि यदि इस सभा मे उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति यह ठान ले कि हर दिन वह दस लोगो को इस खरपतवार के विषय मे बतायेगा तो प्रचार का काम आसानी से और प्रभावी ढंग़ से बिना किसी व्यय के हो जायेगा। वहाँ उपस्थित लोगो ने हामी भारी और सही मायने मे बहुतो ने यह किया भी। बाद मे कई वर्षो तक उनसे सम्पर्क रहा। उन्होने मेरे सभी हिन्दी आलेखो को ले लिया और फिर उसे उडीया मे अनुवाद करके आम लोगो तक अपने खर्च पर पहुँचाया। बस्तर मे भी कई लोगो ने गोंडी भाषा मे इसे अनुवादित कर आम लोगो तक इसके विषय मे जानकारी पहुँचायी। पिछले वर्ष मै उडीसा मे बस से यात्रा कर रहा था। पीछे की सीट पर बैठा हुआ एक स्कूली छात्र खिडकी से यात्रियो को गाजर घास दिखा रहा था और बता रहा था कि इससे कैसे नुकसान होता है। मेरी खुशी का ठिकाना नही रहा। मैने उसे अपना परिचय दिया और फिर अपने अभियान के बारे मे बताया। उसे अपने संगठन का सदस्य भी बनाया। उसने किसी व्याख्यान मे गाजर घास के बारे मे सुना था उसके बाद से वह इस छोटे पर महत्व

सिनेमा घरो से लेकर पत्रिकाओ तक गाजर घास

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-18) - पंकज अवधिया सिनेमा घरो मे इंटरवेल के समय कई प्रकार की स्लाइड दिखायी जाती है। किसी ने सुझाव दिया कि गाजर घास की स्लाइड भी दिखायी जाये। आनन-फानन मे कई स्लाइड बनवायी गयी और रायपुर शहर के सिनेमा घरो से सम्पर्क किया। सबने विज्ञापन के दाम माँगे। दाम ऊँचे थे इसलिये छोटे शहरो के सिनेमा घरो का रुख किया। धमतरी मे बात जमी और प्रशांत टाकीज़ के नाहटा जी ने बडप्पन दिखाया। वे लम्बे समय तक इसे दिखाते रहे बिना शुल्क लिये। इंटरवेल के समय लोग बाहर चले जाते है और बहुत कम लोग ही इसे देख पाते है-ऐसा मन मे था। पर जब इस स्लाइड को देखकर ढेरो पत्र आने लगे तो इसका प्रभाव समझ मे आया। पर्चे मे लिखी जानकारी को संक्षिप्त मानते हुये जब मैने गाजर घास पर एक पुस्तक लिखी हिन्दी मे तो यह उम्मीद थी कि यह हाथो-हाथ बिक जायेगी। धन की कमी से यह आकर्षक नही बन पायी पर इसमे जानकारी विस्तार से थी। देश भर के अखबारो मे इसकी समीक्षा छपी और कुछ लोगो ने इसे मंगाया भी। पर मैने यह पाया कि नि:शुल्क जानकारी के लिये सब तैयार है पर इसके लिये पैसे खर्चने को कम लोग राजी है। पर

दस हजार लोगो को पत्र से गाजर घास की जानकारी

गाजर घास के साथ मेरे दो दशक (भाग-17) - पंकज अवधिया हर बार जब भी देश-विदेश के विशेषज्ञ गाजर घास पर चर्चा के लिये एकत्र होते है तो गाजर घास की समस्या को हल करने की कार्ययोजना प्रस्तुत करते है। इसमे बहुत अधिक धन की माँग की जाती है। इसके विषय मे जागरुकता फैलाने के लिये भी महंगी कार्ययोजना प्रस्तुत की जाती है। नतीजतन योजनाकार इस पर विचार ही नही करते है और कार्ययोजनाओ को ठंडे बस्ते मे डाल दिया जाता है। इस तरह कितनी ही बैठके हो चुकी है और न जाने कितनी भविष्य़ मे होंगी। इस तरह की बैठको से मै बचता हूँ। कभी-कभी यह लगता है कि ऐसी बैठके यदि इंटरनेट के माध्यम से हो जाये तो देश का बहुत पैसा बचेगा और साथ ही उस पैसे से कई क्षेत्रो को गाजर घास मुक्त किया जा सकेगा। ऐसा लिखने पर बहुत से वैज्ञानिक आपत्ति करते है और कहते है इसीलिये आपको बहुत सी बैठको मे नही बुलाया जाता है। यदि आपको हवाई यात्रा करनी है और दिल्ली घूमना है तो ऐसे लेख लिखना बन्द करे। सस्ते मे गाजर घास के विषय मे जागरुकता लानी है तो मै बहुत बडा मददगार साबित हो सकता हूँ। चूँकि बिना किसी आर्थिक सहायता से मै इ